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जैनदर्शन और संभवतः बाह्य और न कदाचित् आभ्यन्तर और बाह्य उभय भेद वाली है। 'स्यात्' अविविक्षितका सूचक :
इसी तरह प्रत्येक धर्मवाची शब्दके साथ जुड़ा हुआ ‘स्यात्' शब्द एक सुनिश्चित दृष्टिकोणसे उम धर्मका वर्णन करके भी अन्य अविवक्षित धर्मोका अस्तित्व भी वस्तु में द्योतित करता है। कोई ऐसा शब्द नहीं है, जो वस्तुके पूर्ण रूपको स्पर्श कर सके। हर शब्द एक निश्चित दृष्टिकोणसे प्रयुक्त होता है और अपने विवक्षित धर्मका कथन करता है । इस तरह जब शब्दमें स्वभावतः विवक्षानुसार अमुक धर्मके प्रतिपादन करनेकी ही शक्ति है, तब यह आवश्यक हो जाता है कि अविवक्षित शेष धर्मोंको सूचनाके लिए एक 'प्रतीक' अवश्य हो, जो वक्ता और श्रोताको भूलने न दे । 'स्यात्' शब्द यही कार्य करता है । वह श्रोताको विविक्षित धर्मका प्रधानतासे ज्ञान कराके भी अविवक्षित धर्मोके अस्तित्वका द्योतन कराता है । इस तरह भगवान् महावीरने सर्वथा एकांश प्रतिपादिका वाणीको भी 'स्यात्' संजीवनके द्वारा वह शक्ति दी, जिससे वह अनेकान्तका मुख्य-गौण भावसे द्योतन कर सकी। यह 'स्याद्वाद' जैनदर्शनमें सत्यका प्रतीक बना है। धर्मज्ञता और सर्वज्ञता ___भगवान् महावीर और बुद्ध के सामने एक सीधा प्रश्न था कि धर्म जैसा जीवंत पदार्थ, जिसके ऊपर इहलोक और परलोकका बनाना और बिगाड़ना निर्भर करता है, क्या मात्र वेदके द्वारा निर्णीत हो या उसमें द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी मर्यादाके अनुसार अनुभवी पुरुष भी अपना निर्णय दें ? वैदिक परम्पराकी इस विषयमें दृढ़ और निर्बाध श्रद्धा है कि धर्ममें अन्तिम प्रमाण वेद है और जब धर्म जैसा अतीन्द्रिय पदार्थ मात्र वेदके द्वारा ही जाना जा सकता है तो धर्म जैसे अतिसूक्ष्म, व्यवहित और विप्र