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जैनदर्शन भेद-अभेद, पुण्य-पाप, अद्वैत-द्वैत, भाग्य-पुरुषार्थ, आदि विविध वादोंका समन्वय किया है । मध्यकालीन आ० अकलंक, हरिभद्र आदि ताकिकोंने अंशतः परपक्षका खण्डन करके भी उसी दृष्टिको प्रौढ़ किया है । वाचनिक अहिंसा स्याद्वाद : ___ मानसशुद्धिके लिए विचारोंकी दिशामें समन्वयशीलता लानेवाली अनेकान्तदृष्टिके आ जानेपर भी यदि तदनुसारिणी भाषाशैली नहीं बनाई तो उसका सार्वजनिक उपयोग होना असम्भव था। अतः अनेकान्तदर्शनको ठीक-ठीक प्रतिपादन करने वाली 'स्याद्वाद' नामकी भाषाशैलीका आविष्कार उसी अहिंसाके वाचनिक विकासके रूपमें हुआ। जब वस्तु अनन्तधर्मात्मक है और उसको जाननेवाली दृष्टि अनेकान्तदृष्टि है तब वस्तुके सर्वथा एक अंशका निरूपण करनेवाली निर्धारिणो भाषा वस्तुका यथार्थ प्रतिपादन करनेवाली नहीं हो सकती । जैसे यह कलम लम्बी-चौड़ी, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, हल्की, भारी आदि अनेक धर्मोंका युगपत आधार है । अब यदि शब्दसे यह कहा जाय कि यह कलम 'लम्बी हो है' तो शेष धर्मोंका लोप इस वाक्यसे फलित होता है, जब कि उसमें उसी समय अनन्त धर्म विद्यमान हैं । न केवल इसी तरह, किन्तु जिस समय कलम अमुक अपेक्षासे लम्बी है, उसी समय अन्य अपेक्षासे लम्बी नहीं भी है। प्रत्येक धर्मकी अभिव्यक्ति सापेक्ष होनेसे उसका विरोधी धर्म उस वस्तुमें पाया हो जाता है । अतः विवक्षित धर्मवाची शब्दके प्रयोगकालमें हमें अन्य अविवक्षित अशेष धर्मके अस्तित्वको सूचन करनेवाले 'स्यात्' शब्दके प्रयोगको नहीं भूलना चाहिए । यह ‘स्यात्' शब्द विवक्षित धर्मवाची शब्दको समस्त वस्तुपर अधिकार करनेसे रोकता है और कहता है कि 'भाई, इस समय शब्दके द्वारा उच्चारित होनेके कारण यद्यपि तुम मुख्य हो, फिर भी इसका अर्थ यह नहीं है कि सारी वस्तु पर तुम्हारा ही अधिकार हो । तुम्हारे अनन्त धर्म-भाई इसी वस्तुके उसी तरह समान अधिकारी हैं जिस तरह कि तुम ।'