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जैनदर्शन
इसमें मोक्षका साक्षात् कारण चारित्र है, और सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान उस चारित्रके परिपोषक । बौद्धपरम्पराका अष्टांग' मार्ग भी चारित्रका ही विस्तार है । तात्पर्य यह कि श्रमणधारामें ज्ञानको अपेक्षा चारित्रका ही अन्तिम महत्त्व रहा है, और प्रत्येक विचार या ज्ञानका उपयोग चारित्र अर्थात् आत्मशोधन या जीवनमें सामञ्जस्य स्थापित करनेके लिए किया गया है। श्रमण-सन्तोंने तप और साधनाके द्वारा वीतरागता प्राप्त की थी और उसी परम वीतरागता, समता या अहिंसाकी पूत ज्योतिको विश्वमें प्रसारित करनेके लिए समस्त तत्त्वोंका साक्षात्कर किया। इनका साध्य विचार नहीं, आचार था; ज्ञान नहीं, चारित्र था; वाग्विलास या शास्त्रार्थ नहीं, जीवन-शुद्धि और संवाद था। अहिंसाका अन्तिम अर्थ है-जीवमात्रमें चाहे वह स्थावर हो या जंगम, पशु हो या मनुष्य, ब्राह्मण हो या शूद्र, गोरा हो या काला, एतत् देशीय हो या विदेशी, इन देश, काल और शरीराकारके आवरणोंसे परे होकर समत्व दर्शन करना। प्रत्येक जीव स्वरूपसे चैतन्य-शक्तिका अखण्ड शाश्वत आधार है । वह कर्मवासनाके कारण भले ही वृक्ष, कीड़ा, मकोड़ा, पशु या मनुष्य, किसीके भी शरीरोंको क्यों न धारण करे, पर उसके चैतन्य-स्वरूपका एक भी अंश नष्ट नहीं होता, कर्मवासनाओंसे विकृत भले ही हो जाय। इसी तरह मनुष्य अपने देश-काल आदि निमित्तोंसे गोरे या काले किसी भी शरीरको धारण किये हो, अपनी वृत्ति या कर्मके अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र किसी भी श्रेणीमें उसकी गणना व्यवहारतः की जाती हो, किसी भी देशमें उत्पन्न हुआ हो, किसी भी संतका उपासक हो, वह इन व्यावहारिक निमित्तोंसे निसर्गतः ऊँच या नीच नहीं हो सकता । मानवमात्रकी मूलतः समान स्थिति है । आत्मसमत्व, वीतरागत्व
१. सम्यक्दृष्टि, सम्यक्संकल्प, सम्यक्वचन, सम्यक्कर्मान्त, सम्यक् आजीव, सम्यक् व्यायाम, सम्यक् स्मृति और सम्यक् समाधि ।