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विषय प्रवेश
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है । किन्तु जब यह दर्शन मतवादके जहरसे विषाक्त हो जाता है तो वह अपनी अत्यल्प शक्तिको भूलकर मानवजातिके मार्गदर्शनका कार्य तो कर ही नहीं पाता, उलटा उसे पतनकी ओर ले जा कर हिंसा और संघर्षका स्रष्टा बन जाता है । अतः दार्शनिकोंके हाथ में यह वह प्रज्वलित दीपक दिया गया है, जिससे वे चाहें तो अज्ञान - अन्धकारको हटाकर जगत्में प्रकाशकी ज्योति जला सकते हैं और चाहें तो उससे मतवादकी अग्नि प्रज्वलित कर हिंसा और विनाशका दृश्य उपस्थित कर सकते हैं । दर्शनका इतिहास दोनों प्रकारके उदाहरणोंसे भरा पड़ा है, पर उसमें ज्योतिके पृष्ठ कम हैं, विनाशके अधिक । हम दृढ़ विश्वासके साथ यह कह सकते हैं कि जैनदर्शनने ज्योतिके पृष्ठ जोड़नेका ही प्रयत्न किया है। उसने दर्शनान्तरोंके समन्वयका मार्ग निकालकर उनका अपनी जगह समादर भी किया है । आग्रही - मतवादको मदिरासे बेभान हुआ कुदार्शनिक, जहाँ जैसा उसका अभिप्राय या मत बन चुका है वहाँ युक्तिकों खींचनेकी चेष्टा करता है, पर सच्चा दार्शनिक जहाँ युक्ति जाती है अर्थात् जो युक्तिसिद्ध हो पाता है उसके अनुसार अपना मत बनाता है । संक्षेपमें सुदार्शनिकका नारा होता है - 'सत्य सो मेरा' और कुदार्शनिकका हल्ला होता है - 'जो मेरा सो सत्य' । जैनदर्शनमें समन्वयके जितने और जैसे उदाहरण मिल सकते हैं, वे अन्यत्र दुर्लभ हैं ।
भारतीय दार्शनोंका अन्तिम लक्ष्य :
भारत के समस्त दर्शन चाहे वे वैदिक हों या अवैदिक, मोक्ष अर्थात् दुःखनिवृत्ति के लिए अपना विचार प्रारम्भ करते हैं । आधिभौतिक, आध्यात्मिक और आधिदैविक दुःख प्रत्येक प्राणीको न्यूनाधिक रूपमें नित्य ही अनुभवमें आते हैं । जब कोई सन्त या विचारक इन दुःखोंकी निवृत्तिका
१. “ आग्रही बत निनीषति युक्ति तत्र यत्र मतिरस्य निविष्टा । पक्षपोतरहितस्य तु युक्तिर्यत्र तत्र मतिरेति निवेशम् ||" - हरिभद्र |