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सामान्यावलोकन वि० को दसवीं सदीमें आ० सिद्धर्षिसूरिने न्यायावतारपर टोका रची।
वि० ११-१२ वीं सदीको एक प्रकारसे जैनदर्शनका मध्याह्नोत्तर समझना चाहिए। इसमें वादिराजसूरिने न्यायविनिश्चयविवरण और प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्तण्ड तथा न्यायकुमुदचन्द्र जैसे बृहत्काय टीकाग्रन्थोंका निर्माण किया। शांतिसूरिका जैनतर्कवार्तिक, अभयदेवसूरिकी सन्मतितर्कटीका, जिनेश्वरसूरिका प्रमाणलक्षण, अनन्तवीर्यको प्रमेयरत्नमाला, हेमचन्द्रसूरिकी प्रमाणमीमांसा, वादिदेवसूरिका प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार और स्याद्वादरत्नाकर, चन्द्रप्रभसूरिका प्रमेयरत्नकोष, मुनिचन्द्र मूरिका अनेकान्तजयपताकाका टिप्पण आदि ग्रन्थ इसी युगकी कृतियाँ हैं ।
तेरहवीं शताब्दीमें मलयगिरि आचार्य एक समर्थ टीकाकार हुए। इसी युगमें मल्लिषेणकी स्याद्वादमंजरी, रत्नप्रभसूरिकी रत्नाकरावतारिका, चन्द्रसेनकी उत्पादादिसिद्धि, रामचन्द्र गुणचन्द्रका द्रव्यालंकार आदि ग्रन्थ लिखे गये।
१४वीं सदीमें सोमतिलकको षड्दर्शनसमुच्चयटीका, १५वीं सदीमें गुणरत्नकी षड्दर्शनसमुच्चयबृहवृत्ति, राजशेखरकी स्याद्वादकलिका आदि, भावसेन विद्यदेवका विश्वतत्त्वप्रकाश आदि महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ लिखे गये । धर्मभूषणकी न्यायदीपिका भी इसी युगकी महत्त्वको कृति है ।
४. नवीन न्याययुग विक्रमकी तेरहवीं सदीमें गंगेशोपाध्यायने नव्यन्यायकी नींव डाली और प्रमाण-प्रमेयको अवच्छेदकावच्छिन्नकी भाषामें जकड़ दिया । सत्रहवीं शताब्दीमें उपाध्याय यशोविजयजीने नव्यन्यायको परिष्कृत शैलीमें खंडनखंडखाद्य आदि अनेक ग्रन्थोंका निर्माण किया और उस युग तकके विचारोंका समन्वय तथा उन्हें नव्यढंगसे परिष्कृत करनेका आद्य और महान् प्रत्यन किया। विमलदासकी सप्तभंगितरंगिणी नव्य शैलीको अकेली और