Book Title: Indian Antiquary Vol 27
Author(s): Richard Carnac Temple
Publisher: Swati Publications

Previous | Next

Page 129
________________ MAY, 1898.) TAE SOUTH INDIAN RECENSION OF THE MAHABHARATA. 125 South Indian MS. Deest. अष्टादशैवमेतानि पर्वाण्युक्तान्वशेषतः। खिलेषु हरिवंशश्च भविष्यश्च प्रकीर्तित । Deest. 3788 379a ____Devanagari edition (Bombay). 378a नव भोकास्तथैवान्ये संख्याताः परमर्षिणा। °ण्येतान्य भविष्य च 3798 दशलोकसहमाणि विशछोकशतानि च । 3804 खिलेषु हरिवंशेच संख्यासानि महर्षिणा। एतत्सर्व समाते पर्वसंग्रहः क्षौहिण्डो वन्महादा पनिषदो द्विजः 381 एतत्सखिलमाख्यावं भारतं पर्यसंग्रहात् । 3808 अष्टादश समाजग्मुरक्षोहिण्यो युयुस्सया। तन्महहारुणं युद्धमहान्यष्टादशाभवत् । यो विद्याश्चतुरो वेदान् सांगोपनिषदान्द्रिजः। न चाख्यानमिदं विद्यान्नव स स्याविचक्षणः। 382 Deest. 383a अर्थशास्वमिदं प्रोक्त धर्मशास्त्रमिदं महत् । 3836 कामशास्त्रमिदं प्रोकं व्यासेनामितबुद्धिना। मिरं श्रुत्वा विमुपाख्यानं श्राव्यमन्बन रोचते। पुस्कोकिलरुतं श्रुत्वा रूक्षाद्धांक्षस्य वागिव। 384 इतिहासोसमावस्माचजायन्ते कविबुद्धयः। पञ्चभ्य व भूतेभ्यो लोकसंविधयस्वयः। अस्याख्यानस्य विषये पुराणं वर्तते विजाः। अन्तरिक्षस्य विषये पञ्चा इव चतुर्विधाः। 386 क्रियागुणानां सर्वेषामिदमाख्यानमाश्रयः। इन्द्रियाणां समस्तानावित्रा व मनःक्रियाः।387 अनाश्रित्यैतदाख्यानं कथा भुवि न विद्यते । आहारमनपाश्रित्य शरीरस्येव धारणं। इद सर्वैः कविवरैराख्यानमुपजीव्यते। उदयप्रेस्सुभिर्भूत्यैरभिजात इवेश्वरः । Deest. 388 389 कविवरैः सर्वे मेप्स 390a अस्य काव्यस्य कवयो न समर्था विशेषणे। 3908 साधोरिव गृहस्थस्य शेषास्वयवाश्रमाः। 391a धर्मे मतिर्भवतु वः सततोस्थिसानां स ह्येक एव परलोकगतस्य बन्धुः । 3918 अर्थाः स्विच निपुणैरपि सेव्यमाना नैवानभाव मुपयान्ति बच स्थिरत्वं । पावनौष्टपुटनिः ईपायनेषु पुटनिस्तमप्रमेयं पुण्यं पवित्रमथ पापहरं शिवच्च। यो भारतं समधिगच्छति वाच्यमानं किन्तस्व पुष्करजलैरभिषेचनेन ।। Deest. 392 393a यदहा कुरुते पापं ब्रामणस्त्विन्द्रियैश्चरन् । 3936 महाभारतमाख्याय सम्भ्यां मुख्याति पश्चिमां। 394a यद्रात्रौ कुरुते पापं कर्मणा मनसा गिरा। 3946 महाभारतमाश्याय पूर्वी सन्यां प्रमुच्यते। 395a यो गोश्शतं कनकभृङ्गमयं ददाति विप्राय वेदविदुषे चबाभुताया। 3958 पुण्यां च भारतकयां शृणुयाच निस्वं तुल्यं फलं भवति तस्य च तस्य चैव । विशेब म आख्यानन्तदिदमनुत्तमम्महात्य विन्यस्तम्महदिह पर्वसंग्रहेण । श्रुत्वादी महति नृणां मुखापगाही विस्ती लवजले यथा वेन ।। 396 इति श्रीभारते शतसहनिकायां संहिताबामादिपर्वषि पौलोमे पर्वसंग्रहो नाम द्वितीयोद्धघायः ।। मई भवति गाहं विस्तीर्ण श्रीमहाभारते भारिपर्वपि पर्वसंमहपर्वपि

Loading...

Page Navigation
1 ... 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404