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पढी गरढो धइ ॥ १ ॥ पाणी ग्रहण करे तव बंज, घर आणी नवयौवन रंज ॥ रूपवती ने चंचल घणुं, मन रंजे जरतारह तां ॥ २ ॥ कपट केलवे त्यां बां जणी, तिम तिम आनंद पामे धणी ॥ मूढ न जाणे स्त्रीनी वात, पीये नीर जेतुं स्त्री पात ॥ ३ ॥ १०१ ॥ ॥ दोहा ॥
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በ जे शूरा जे पंकिता, जे होय बहु गंजीर ॥ नारी सबै नचाविया, जे होय बावन वीर ॥ १ ॥ स्त्री प्रायें सब वंकडी, मत को करो विश्वास ॥ माथे घट चडावी करी, पछे दीये गले पास ॥ २ ॥ जिस कारण शिर कट्टीयें, धरणी ढले जब देह ॥ रुधिर पिये ततक्षण महि धिग धिग त्रिया सनेह ॥३॥ नारी मदन तलावडी, बूडो सब संसार ॥ काढण हारो को नहिं, बूड्यां बूंब न वार ॥४॥ वाघणी वग डामांदेली, जबहिं मिले तब खाय ॥ नारी वाघण व पड्यो, वसतियें फाडी खाय ॥ ५ ॥ कूड कपटा नी कोयली, स्त्री होय निठुरी जाति ॥ देखी न शके रूडुं करे पियारी तांति ॥ ६ ॥ नारीदेह दीवो कस्यो, पुरुष पतंगी होय ॥ जग सघलो खूंची रह्यो, निकले विरलो कोय ॥ ७ ॥ नारी नहिं रे बापडा,
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