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(१६ए)
जाग रे ॥ ज० ॥ ११॥ वांक सारु शीख दीजें, मनावे पण सहिय रे ॥ कदाचित् जो चढे कोघे, पडे कूपें जश्य रे ॥ ज० ॥ १२ ॥ नीतिशास्त्र कह्यु एहवं, हुआ पंमित चार रे ॥ सवा लाख एक करे वैदक, एके धर्म विचार रे ॥ ज० ॥ १३॥ एकें तो नीतिशास्त्र कीधुं, एके शास्त्र शिणगार रे ॥ नूप श्रा गल जश्नांखे, नृप कहे तेणी वार रे ॥ ज० ॥१४॥ संदेपो तो सुणी शकिये, वैद्य बोल्यो ताम रे ॥ अजीर्णमांहे तजे नोजन, नहिं तस औषध काम रे॥ ज० ॥ १५ ॥ कपिल धर्मर्नु मूल नांखे, धुर दया जीव खास रे ॥ बृहस्पतें नीतिशास्त्रे नांख्यु, कहोनो म कर विश्वास रे ॥ ज० ॥ १६ ॥ पांचाली शणगार शास्त्रे, स्युं श्राण्युं घेर रे ॥ स्त्री आगल सुकुमाल अश्ये, चाले घर शुज पेर रे॥ज० ॥१७॥ घर तो घरणी थकीज शोने, पुरुषतुं नहिं काम रे॥ तोलडी थाल नर धोवे ढांक, हसे आ गाम रे ॥ ज० ॥ १७ ॥ षन कहे हित शीख तुमनें, सांजलतांबहु बुधि रे॥ कलेश कंदल न होय घरमां, वाधे सबली रिछि रे ॥ ज० ॥ १५ ॥ १४३३ ॥
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