Book Title: Hitshikshano Ras
Author(s): Rushabhdas Shravak
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek
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(२६) दीन दीण जोगी संन्यासी, कडी कापडी ने मठवा सी॥अन्नदान तस दीजियें ए ॥३५॥ तेहy कुल न वि जुए जाति, तपविद्या धर्म पूजे म ज्ञाति ॥ यथा योग्य तस दीजियें ए ॥२६॥ एणी पेरें पंथें जोजन कीजें, अणसमजे घर नवि सूईजें ॥ वणज करे व्यवहारनो ए ॥२७॥ जला पुरुषने वस्त वहो रावे, धन उपार्जी वहेलो श्रावे ॥ रुषल कहे हित शीखडी ए ॥ २७ ॥ सर्वगाथा ॥ १७४५ ॥
॥ ढाल ॥ चोपानी देशी ॥ ॥ नवि दीजें बहुइजिय फुःख, अति लाली नवि की जें सुख ॥ धर्म अर्थ काम जिहां नहिं, सोय काम म करजो कहीं ॥१॥ विषमुं श्रासन पुरुषने बार, म कर कुचेष्टा सना मकार ॥ घणो म लेजे माले नार, सांकें म करीश दहिनो आहार ॥२॥ चंड सूर्यनुं ग्रहण म जोय, व्यंतर बल पाडे सहि कोय ॥ मम निरखे गर्नवंती सोय, बालक ग्रहणे घेलो होय ॥ ॥३॥ म म चांपे तुं पाये पाय, खणे नूमि अपल कण थाय ॥ पगें करी म म सोजो धूल, ए अप लकण महोटुं मूल ॥४॥ मैथुन लण ने निझाय, मकर सवार पामत राय ॥ संध्याकाबाहार,
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