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(ए) परिवार रे, होय निर्दयपणुं अहंकार रे ॥ पात्र देखी होये अप्रीत रे, कटु वाणी ने तृष्णा चित्तरे ॥५॥ आपदायें दीन न थाय रे, विद्यावंतने नम तो जाय रे ॥ खमे समरथ हुई जेह रे, परपीडें कुःखीयो तेह रे ॥३॥ फुःख आवे बातम ज्यारें रे, हर्ष पामे उत्तम त्यारे रे ॥धन पामे गर्व न होय रे, तेहना देवता पाय धोय रे ॥४॥ धनवंत होये नर जेह रे, न वढे घj कोश्शुं तेह रे॥ घटे लजा ने धन जाय रे, ते मूरखमां कहेवाय रे ॥ ५ ॥ ज गमाहे मूरख चार रे, रोगी लोलुपवंत अपार रे॥ खासी खुखु ने चोरीनो रंग रे, निमा जाजी परस्त्री संग रे ॥६॥ धनवंत कलेशनो अर्थी रे, ए मूरख चारे धुरथी रे ॥ न करो मूरखने साद रे, धनवंत शुं करता वाद रे ॥७॥ नृप पद घणो बलवंत रे, गुरुशुं न वढे गुणवंत रे॥ तपशीने चोर रीसाल रे, वढे जे जग मूरख बाल रे॥७॥ महोटा साथ पडि युं काम रे, विनय वचनें करतो ताम रे॥ पंचाख्या ननो नाव ते लीजें रे, नमस्कार उत्तमने कीजें रे ॥ ए॥ बलवंतशुं कीजें नेद रे, दीये नीचाने न होये जेम खेद रे॥ बराबरीनो होय ज्यांही रे, बहु
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