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(१६१) सांजलो, स्त्रीय समी नाहं बाथ ॥ रसोइ निपावे रतन जणे, शके तो श्रावे साथ ॥ २४ ॥ पुण्ये ला धे पदमिनी, अने गुणवंती नार ॥ शीलवती ने सुं दरी, रम ऊम करती बार ॥२५॥ सर्वगाथा॥१३६५॥
॥ ढाल ॥ चोपाईनी देशी ॥ ॥ उचित नारी तणुं साचवे, रात दिवस मुख म धुरं लवे ॥ मीगं वचन समुं वली जोय, वशीकरण जगमां नवि होय ॥१॥ कला ऊपर को धन न हिं, जीवदया सम धर्म न कहिं । संतोष जपर सुख को नश्री, मधुर वचननो गुण तिम अति ॥२॥ वचनें संतोषे निज नारी, कुटुंब लक्ष्मी दिये सो अनु रागी॥ अलंकार पहेरावे सार, स्त्रीशोन्ने शोने जर तार ॥ ३ ॥ निशासमय फरती ते वार, कुसंगथी विणसे शुज नार ॥राजपंथने परघर बार, बहु नम तां विणसे ऋषि नार ॥ ४॥ दूती जात नर दूरे वार, न रहे पियरें धोबी बार ॥ जागरण जानें जावु निवार, नारी कंत नहिं जस बार ॥ ५॥ उपाशरे देहरे जो जाय, त्यारे वडेरी पूजें थाय ॥ घरनों कारज नलावे सहु, ते घरसूत चलावे बह ॥६॥ नवरी ते चपलाई करे, हास्य विनोद धर्मति
हि० ११
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