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( ६१ )
सुंदर गंधाय ॥ २ ॥ मेल टले मुखनो नर निश्चें, पान संयोगें खाय ॥ सूतो उठी जे नर सेवे, देह कसुंबो थाय ॥ ३ ॥ जिम्या पढी खावां वली निचें, थाको पुरुष पण खाय ॥ वमन करीने वलि वावरे, सकल दोष तस जाय ॥ ४ ॥ वाग्युं होय ते पान परिहरे, आंख दूखती जास ॥ पान तजो मदिरा पान कीधे, विष खाधुं नहिं तास ॥ ५ ॥ चूनो काथो ने सोपारी, केसर कपूर लविंग ॥ चिनिकबाब पान एलची, खातां दीपे अंग ॥ ६ ॥ इत्यादिक सं योगें खाय, तस घर लखमी वास ॥ सुंदर महिला मंदिर महोटां, करे पुरुष बहु आश ॥ ७ ॥ अणी पाननी ते नविखावी, सबल विरोधज थाय ॥ मध्यें लक्ष्मी ही कही जें, बीट घटाडे आय ॥८॥ रात्रें मुखें तंबोल न राखे, तिलक ने सार फूल ॥ स्त्रीनी सेज तजे नर जेता, ते पंक्ति लहे मूल ॥ ए ॥ स्त्रीसं गें बल जाये नरनुं, तिलक घटाडे आय ॥ फूलें सर्प तो संग होये, पानें प्रज्ञा जाय ॥ १० ॥ स मजे ते सुख पामे बहुलुं वडो विवेक जगमांहि ॥ विवेक तेज धर्म कहीजें, विवेक विना श्रेय क्याहिं ॥ ११ ॥ आखां पान न खावां कहियें, शिरा काढ
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