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( ३३ )
क मिल्यो, समकित लहि मिथ्यात्वी टल्यो ॥ १०॥ कहे चित्र तुमो गुरु सुणो, तुमने लान होशे श्रति घणो ॥ श्वेतांबिकायें तुमें यावजो, परदेशीने प्रति बोधजो ॥ ११ ॥ केशी गणधर आव्या सही, चित्र स थयो गहगही || घोडा रमाडवानो मन थयो, नृपनें पूठें लेई गयो ॥ १२ ॥ केशीने दीठा जेटले, परदेशी बोल्यो तेटले ॥ गर्व धरिने गुरुने कहे, किस्युं मूढ वनमांहि रहे ॥ १३ ॥ कष्ट करे बे फो गट यति, माता महारी श्राविका हती ॥ नास्तिक तो महारो वाप, नवि सहहतो पुण्यने पाप ॥ १४ ॥ में बेहूने मरतां कथं, कहेजो नावि जे तुम लधुं ॥ कहेवा नहिं श्रव्यां ते दोय, जीव कुगं ति नवि सरगह होय ॥ १५ ॥ श्रया चोर घणा में ग्रही, तिल तिल कटका कीधा सही ॥ जीव होय तो दीसे नहिं, एह वात साची नहिं कही ॥ १६ ॥ पुरुष जीवतो तोल्यो सही, मुया पढी तोक्यो में ग्रही ॥ जारे हलुवो नहिं ते तंत, कहे जति तों कहां बे जंत ॥ १७ ॥ घश्रामांहि नर घाल्यों ग्रही, मुख बीड्यं तेनुं में सही ॥ तेह मुर्जने कीडां पंड्या, जीव शोधतां मुक नवि जड्या ॥ १८ ॥
हि० ३
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