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પાનાંજલિ तीर्थंकर आदिके जीवनप्रसंग या अन्य ऐतिहासिक प्रसंग वगैरहका आलेखन किया जाता था। यह बात तो कागजको पुस्तकोंके बारेमें हुई। ताड़पत्रीय ग्रन्थ आदिके संरक्षण के लिये अनेक प्रकारको कलापूर्ण चित्रपट्टिकाएँ बनाई जाती थी। उनमें सुन्दर - सुन्दरतम बेलबूटे, विविध प्राणी, प्राकृतिक वन, सरोवर आदिके दृश्य, तीर्थकर एवं आचार्य आदिके जीवनप्रसंग आदिका चित्रण होता था । इसके लिये भी वस्त्रके वेष्टन तथा डिब्बे बनाए जाते थे और उनमें जीव-जन्तु न पड़े इसलिये असगन्ध (सं० अश्वगन्ध) के चूर्णकी वस्त्रपोलिकाएँ - कपड़ेकी पोटलियाँ-रखी जाती थीं ।
ग्रन्थसंग्रहों पर चौमासेमें नमी और उष्णकालमें गरमीकी असर न हो तथा दीमक आदि पुस्तकभक्षक जन्तुओंका उपद्रव न हो इसलिये उनके लायक स्थान होने चाहिए। ऐसे अत्यन्त सुरक्षित, सुगुप्त एवं आदर्शरूप माना जा सके ऐसा एक मात्र स्थान जेसलमेरके किलेके मन्दिरमें बचा हुआ है । इसमें वहाँका श्रीजिनभद्रसूरिका ज्ञानभाण्डार सुरक्षित रूपमें रखा गया है । छह सौ वर्षोंसे चला आता यह स्थान जैनमन्दिर में आए हुए भूमिगृह-तहख़ानेके रूपमें है । छह सौ वर्ष बीत जाने पर भी इसमें दीमक आदि जीव-जन्तुओंका तथा सर्दी-गरमीका कभी भी संचार नहीं हुआ है । यह तो हमारी कल्पनामें भी एकदम नहीं आ सकता कि उस ज़मानेके कारीगरोंने इस स्थानकी तहमें किस तरह के रासायनिक पदार्थ डाले होंगे जिससे यह स्थान और इसमें रखे गए ग्रन्थ अबतक सुरक्षित रह सके हैं। ज्ञानभाण्डारोंके मकान जिस तरह सुरक्षित बनाए जाते थे उसी तरह राजकीय विप्लवके युगमें ये मकान सुगुप्त भी रखे जाते थे। जेसलमेरके किलेका उपर्युक्त स्थान निरुपद्रव, सुरक्षित एवं सुगुप्त स्थान है । इसके भीतरके तीसरे तहख़ानेमें ज्ञानभाण्डार रखा गया है
और उसका दरवाजा इतना छोटा है कि कोई भी व्यक्ति नीचे झुककर ही इसमें प्रविष्ट हो सकता है । इस दरवाजेको बन्द करनेके लिये स्टीलका ढक्कन बनाया गया है और विप्लवके प्रसंग पर इसके मुँहको बराबर ढंक देनेके लिये चौरस पत्थर भी तैयार रखा है जो इस समय भी वहाँ विद्यमान है । इसके बादके दो दरवाजों के लिये भी बन्द करनेकी कोई व्यवस्था अवश्य रही होगी परन्तु आज उसका कोई अवशेष हमारे सामने नहीं है। तहख़ानेमें नीचे उतरनेके रास्तेके मुखके लिये ऐसी व्यवस्था की गई है कि विप्लवके अवसर पर उसे भी बड़े भारी पहाड़ी पत्थरसे इस तरह ढाँक दिया जाय जिससे किसीको कल्पना भी न आ सके कि इस स्थानमें कोई चीज़ छिपा रखी है। तहख़ानेके मुँहको ढंकनेका उपर्युक्त महाकाय पत्थर इस समय भी वहां मौजूद है।
जिस तरह ज्ञानसंग्रहोंको सुरक्षित रखनेके लिए मकान बनाए जाते थे उसी तरह उन भाण्डारोंको रखनेके लिये लकड़ी या पत्थरकी बड़ी बड़ी मजूसा (सं. मंजूषा=पेटी) या अलमारियाँ बनानेमें आती थीं। प्राचीन ज्ञानभाण्डारोंके जो थोड़े-बहुत स्थान आजतक देखनेमें आए हैं उनमें अधिकांशतः मजूसा ही देखनेमें आई हैं। पुस्तकें निकालने तथा रखनेकी सुविधा एवं
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