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નન્દી સૂત્રક પ્રણેતા તથા ચૂર્ણિકાર
[८3 प्रणेता श्रीजिनदासगणिमहत्तर हैं, जिसका रचनासमय स्पष्टतया प्राप्त नहीं है, फिर भी आज नन्दीसूत्रचूर्णीकी जो प्रतियाँ प्राप्त हैं, उनके अंतमें संवत्का उल्लेख नज़र आता है, जो चूर्णीरचनाका संवत् होनेकी संभावना अधिक है । यह उल्लेख इस प्रकार है
शकराज्ञः पञ्चसु वर्षशतेषु व्यतिक्रान्तेषु अष्टनवतेषु नन्द्यध्ययनचूर्णी समाप्ता इति ।
अर्थात् शाके ५९८ (वि. सं. ७३३) वर्षमें नन्द्यध्ययनचूर्णी समाप्त हुई । इस उल्लेखको कितनेक विद्वान् प्रतिका लेखसमय मानते हैं, किन्तु यह उल्लेख नन्द्यध्ययनचूर्गीकी समाप्तिका अर्थात् रचनासमामिका ही निर्देश करता है, लेखनकालका नहीं। अगर प्रतिका लेखनकाल होता तो ' समाप्ता' ऐसा न लिखकर ‘लिखिता' ऐसा ही लिखा होता । इस प्रकार गद्यसन्दर्भमें रचनासंवत् लिखनेकी प्रथा प्राचीन युगमें थी ही, जिसका उदाहरण आचार्य श्रीशीलाङ्ककी आचारागवृत्तिमें प्राप्त है।
सूत्र और चूर्णिकी भाषा __नन्दीसूत्र और उसकी चूर्णीकी भाषाका स्वरूप क्या है ? इस विषयमें अभी यहाँ पर अधिक कुछ मैं नहीं लिखता हूँ। सामान्यतया व्यापकरूपसे मुझे इस विषयमें जो कुछ कहना था, मैंने अखिलभारतीय प्राच्यविद्यापरिषत्-श्रीनगरके लिये तैयार किये हुए मेरे " जैन आगमधर और प्राकृत वाङ्मय" नामक निबन्धमें कह दिया है, जो 'श्रीहजारीमल स्मृतिग्रन्थ' में प्रसिद्ध किया गया है, उसको देखने की विद्वानोको सूचना है।
[र्णिसहित 'नन्दीस्त्र', प्रस्तावनासे, वाराणसी, १९६६ ]
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