________________
આરાધનાપતાકા ઔર્ વીરભદ્રે
[ १०५
चतुःशरणके टीकाकारने चतुःशरणके कर्ता 'वीरभद्रगणि' को जो महावीर भगवान्का शिष्य बतलाया है, वह केवल गतानुगतिक किंवदंती पर अवलम्बित है, जो अभीतक चतुःशरण, भक्तपरिज्ञा आदि के बारेमें बदस्तूर चली आती है । इससे अधिक 'वीरभद्र' संबंधी विशेष हाल मालूम नहीं हुआ | वीरभद्रके इस 'आराधनापताका ' ग्रन्थ और उपलब्ध हुआ और उसकी दो कापियाँ मिलीं । अतः पाठकोंके परिज्ञानार्थ यहाँ उसका भी कुछ परिचय दे दिया जाता है
यह दूसरा ' आराधनापताका ' ग्रन्थ प्राकृत, कर्ता के नामसे विरहित, द्वात्रिंशद्वारात्मक और गाथा प्रमाण ९९३ को लिये हुए है । इसके मंगलाचरणकी और अत्यकी गाथायें क्रमशः ये हैं
" पणमिरन मिरनरिंदवंदियं वंदिउं महावीरं । भीमभवन्नवगणं पजंताराहणं एयं ॥ १ ॥
बत्तीस दारेहिं भणिहि खवगस्स उत्तम विही |
"
" आराहणापडायं एयं जो सम्ममायरइ धन्नो ।
सो लहइ सुद्धसद्धो तिलोयचंदुज्जलं किति ॥ ९३०॥
यह ग्रन्थ भी वेताम्बरीय है; क्यों कि इसके सुकृतानुमोदन द्वारमें ३७७ वीं गाथा इस प्रकार है
―
१४
39
अर्थात् - काल ( जिस वक्त कालिकादि श्रुत पढ़नेका समय बताया है वह ) में श्रुतका अध्ययन किया हो, अंगश्रुत ( द्वादशांग ) अनंगश्रुत ( उपांगादि ) का योगवहन ( विधानविशेष ) किया हो, और प्रतिलेखना आवश्यकादिक यथावस्थित किया हो उसका अनुमोदन करता हूँ ।
" कालि य सुयस्स गुणणं अंगाणंग-सुयजोगवहणं जं ।
अणहिय- अहीणकरणं पडिलेहावरसयाईणं ||
"
इससे स्पष्ट है कि यह ग्रन्थ भी दिगम्बराचार्य विरचित नहीं; क्यों कि द्वादशांगी और उपांगश्रुत दिगम्बराचार्यसंमत न होनेसे उनके यहाँ इनका योगवहन 'शशशृंग' समान है ।
Jain Education International
यह ' आराधना-पताका ' ग्रन्थ तेरहवीं शताब्दी के अनन्तरका है; क्यों कि इसमें 'आशातनादोष-प्रतिक्रमण ' द्वारान्तर्गत गुरुकी तेतीस आशातना संबंधी " पुरओ पक्खासने " आदि तीन गाथाएँ ' देवेन्द्रसूरि ' कृत ' गुरुवंदनभाष्य ' की हैं; और ये देवेन्द्रसूरि तेरहवीं शताब्दी में हुए हैं । अंतमें ' आराधना-पताका 'की पुस्तकें इकट्ठी कर देने वाले मुनिवर्य श्री जसविजयजीका उपकार मानता हुआ मैं इस लेखको यहीं समाप्त करता हूँ ।
[ 'जैन द्वितैषी' दिसम्बर, ई. स. १९१९ ]
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org