Book Title: Gyananjali Punyavijayji Abhivadan Granth
Author(s): Ramnikvijay Gani
Publisher: Sagar Gaccha Jain Upashray Vadodara

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Page 513
________________ २०] શાનાં લિ आगमप्रभाकर मुनिश्री पुण्यविजयजीमें मैंने प्रथम सम्मिलनके मधुर क्षणोंमें ही इस विलक्षणताका निकटसे अनुभव किया था। मैं जबसे उस महामहिम ज्ञानात्माके संपर्कमें आया हूँ, मेरा यह अनुभव दृढसे दृढतर होता गया है । देश-कालके धुंधलाने वाले व्यवधानोंके बावजूद भी हमारा वह परिचय, आज भी मधुरसे मधुरतम है, निकटसे निकटतम है, " है " ही क्यों, भविष्यके क्षणोंमें भी वह जिस वेगसे प्रवाहित है, नहीं कह सकता, वह कब तक, कहां तक प्रवाहित रहेगा ? किन्तु इतना मुझे लगता है कि इस प्रवाह को जल्दी ही कहीं किनारा नहीं मिलेगा। __सन् १९५२ में सादडी ( मारवाड )में श्रमण सम्मेलनके अवसर पर उनका सर्वप्रथम मधु-मधुर साक्षात्कार हुआ । श्रुत-शील-श्रद्धा एवं सरलताकी एक अद्भुत सौरभ जैसे उनके व्यक्तित्वसे प्रस्फुटित हो कर परिपार्श्व को महका रही थी। इतना ज्ञान, और इतनी विनम्रता! दूर दूर तक इतनी उज्ज्वल ख्याति तथा निर्मल कीति और प्रथम वारकी निकटतामें ही इतना माधुर्य, जो कभी भुलाया नहीं जा सकता! इतना सहज निजत्व कि, जो कभी अद्वैतताकी विस्मृति नहीं करा सकता । मुझे लगा, यह व्यक्तित्व वहुत ऊचाँ है-हिमालय-सा, और बहुत गहरा है-सागर-सा । परिचय और विचारचर्चाके पश्चात् मेरे मनमें उनके व्यक्तित्वकी जो प्रतिक्रिया हुई, वह प्रतिक्रिया रूपमें नहीं, किन्तु हक फलश्रुतिके रूपमे, मैनें तत्रस्थ अपने स्नेही मुनिजनोंको बतलाई : इस व्यक्तित्वमें ज्ञानका वह आलोक है, जो इतिहासकी कन्दराओंमें छिपे अधकारको नष्ट करके सत्यको उद्घाटित कर सकता है, वह अद्भुत स्फूर्ति और निष्ठा है, जो विशृंखलताओं एवं विस्मृतियोंकी तहमें दबी हुई श्रुत-परम्पराको पुनरुज्जीवित कर सकती है। ___ समयके लम्बे व्यवधानोंके पश्चात् आज मैं अपने इस मूल्यांकनको जब उनकी उपलब्धियोंके संदर्भ में परखता हूँ, तो लगता है मूल्यांकन बहुत कुछ सही था । उन्होंने अब तक जो कुछ दिया है, उसने एक सिरेसे विद्वज्जगतको चमत्कृत कर दिया है, जैन-अजैन सभी मनीषी उनकी उपलब्धियोंको मुक्त कंठसे सराह रहे हैं। ... सादडी श्रमण सम्मेलनके पश्चात् उनके स्नेहसिक्त आग्रहसे ही पालनपुरमें सम्मिलित चातुर्मास करनेका भी संकल्प हुआ था, किन्तु परिस्थितियोंकी जटिलता ही कहूँ, कुछ ऐसी थी कि संकल्प पूरा न हो सका, और एकसाथ बैठ कर आगम-अनुसन्धानकी दिशामें होने वाली अनेक परिकल्पनाएं एवं विचारणाएं अधूरी रह गई । क्या ही अच्छा होता, हम दो परम्पराओंके साथी मिलकर आगम संपादनकी दिशामें ऐसा कुछ करते कि जो भविष्य के लिए एक धाराका चिन्तन देता। बहुश्रुत मनीषी पंडित बेचरदासजी, एवं प्रतिभामूर्ति दलसुखभाई मालवणियाके माध्यमसे जब जब भी मुनिश्रीको चर्चा चली तो मैं सतत यही सुनता रहा हूँ कि वे प्राचीन ग्रन्थोंके अनुसन्धान एवं परिशीलनमें अब भी उसी निष्ठाके साथ संलग्न हैं, जैसा कि आज से १५-२० वर्ष पूर्व थे । लगता है, उनका जीवन श्रुतदेवताके चरणों में सम्पूर्ण निष्ठा एवं सामर्थ्य के साथ - समर्पित हो गया है । इस पथ पर वे सदा तरुण ही रहेंगे। उन्हें वृद्धत्व कभी आएगा नहीं। और वह आना भी नहीं चाहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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