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स्वाध्याय, ध्यान में अपनी संयमयात्रा सरलता सहजता एवं कुशलता से पसार कर रहे थे कि पर्युषण महापर्व की अतिसुंदर आराधना करने
और करवाने के पश्चात् किसी कर्म के संयोग से अचानक बीमार पड़ गए.
नारणपुरा श्रीसंघ ने अच्छे से अच्छे डॉक्टरों से निदान करवाया तो कैंसर की व्याधि नज़र के समक्ष आइ. डॉक्टरों ने और श्रीसंघ के अग्रगण्य श्रावकों ने पूज्यश्री की अनुमोदनीय सेवा की. उपाध्यायप्रवरश्री ने इनकी जोरों की वेदना में भी अपना तन-मन परमात्मा की भक्ति में लगा दिया. संपूर्ण रूप से समाधि रख कर कैंसर का ऑपरेशन करवाया पर यह व्याधि बहुत ही खराब निकली. कैंसर बड़ी तेजी से फैला और गाँठ पेट में ही फट गई, जिससे पूज्यश्री को निरंतर कई दिनों तक खून की उल्टियाँ होती रही. पूज्यश्री की यह दारूण वेदना देख कर साथ में सेवारत सभी व्यथित हो जाते थे परंतु पूज्यश्री के चेहरे की प्रसन्नता जरा भी कम नहीं होती थी. ऐसे ही में एक बार उन्होंने सहवर्ती मुनि के चेहरे पर चिंता के भाव जानकर कहा कि "तू क्यों चिंता करता है, मैं तैयार हूँ." पूज्यश्री के ये शब्द सुनते ही प. पू. स्व. गच्छाधिपति आचार्यदेव श्री कैलाससागरसूरीश्वरजी के ये अंतिम शब्द स्मृतिपटल पर उभर आए कि "मुझे जीने का मोह नहीं है व मरने का भय नहीं है; जिऊँगा तो सोऽहं सोऽहं करूँगा और मरूँगा तो श्री सीमन्धरस्वामी के पास जाऊँगा" दो महापुरूषों के अंतिम उद्गारों के भावों में कितनी समानता! महापुरूषों के आशीर्वाद से जीवन में उत्तम संयम को पालन करने वाले मौत का यही हाल करते हैं, उनकी मृत्यु महोत्सव बन जाती है.
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