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द्वितीय अधिकार। विश्वलोचन था। वह शत्रु समुदायके लिए, सिंह के समान था
और उसको कांति सूर्यको भी परास्त करने वाली थी। वह यावकोंको इच्छाके अनुसार दान दिया करता था। अतएव वह मनकी उत्कट भावनाओं को पूर्ण करने वाले फल्पवृक्षोंको भी सदा जीतता रहता था। संभवत: विधाताने इन्द्रसे प्रभुत्व लेकर फुवेरसे धन और चन्द्रमासे शीतलता और सुन्दरता लेकर उसका निर्माण किया था। उसके अंग प्रत्यंग ऐसे बने थे, मानों सांचे में ढाले गये हों । जिस प्रकार हरिण सिंहके भय से जंगलका परित्याग कर देता है, उसी प्रकार विश्वजीतके महाप्रताप को देखकर उसके शत्रु अपनी प्राण-रक्षाके लिए देश का त्याग कर देते थे। उसका विस्तृन ललाट ऐसा मनोरम प्रतीत होता था, मानो विधिने अपने लिखनेके लिए ही उसे बनाया हो। उसके भुजा रूपी दण्ड सुन्दर और जांघ तक लंबे थे। वे ऐसे प्रतीत होते थे, जैसे शत्रुओंको बांधनेके लिये नागपाश हो। उसका सुविस्तृत वक्षस्थल देवांगनाओंको भी मोहित कर लेता था और लक्ष्मीका क्रीड़ास्थल जान पड़ता था। समुद्रोंको धारण करनेवाली गंभीर पृथ्वीकी तरह उसको विमल बुद्धि, चारों प्रकार की विद्याओंको धारण करने. वाली थी। उसकी अत्यंत उज्वल और निमेल कीर्ति सुदूर देशों तक फैली हुई थी। विश्वजीत राजाके यहां प्रधान मंत्री सुन्दर देश किले, खजाने, और सेनाए आदि सब कुछ थे। प्रभाव उत्साह आदि तीनों शक्तियां विद्यमान थीं। इसके अतिरिक्त संधि विग्रह, यान आसनद्वधा आश्रय आदि छः गुण थे