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द्वितीय अधिकार।
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अनेक प्रकारके बाजे बज रहे थे। वहां पुरुषोंकी भीड़ लगी हुई थी। वह नाटक ताल और लयों से सुन्दर था। उसमें स्त्री वेशधारी पुरुषोंके नृत्य हो रहे थे। खेल तथा दृश्यके साथ पुरुषोंके अंग विक्षेप और खियोंके गान हो रहे थे । अर्थात् वह नाटक सबके मनको प्रफुल्लित कर रहा था। ऐसे मनोमुग्धकारी अभिनयको देखकर रानी चंचल हो उठी । ठीक ही है, अपूर्व नाटकको देखकर कौन ऐसा हृदय होगा, जिसमें विकार न उत्पन्न होता हो। रानी सोचने लगी-इस राज्योपभोगसे मुझे क्या लाभ होता है। मैं एक अपराधीकी भांति वन्दीखानेमें पड़ी हुई है। वे स्त्रियां ही संसारमे सुखी हैं जो स्वतंत्रता पूर्वक जहां कहीं भी विचरण कर सकती हैं। अवश्य यह पूर्वभवके पाप कर्मोके उदयका ही फल है कि मुझे उस अपूर्व सुखसे वंचित होना पड़ा है। अतएव अवसे मैं भी उन्हींकी तरह स्वतंत्रता पूर्वक विचरण करनेका प्रयत फलंगी और वह भी सदाके लिये। इस संबन्ध लजा करना ठीक नहीं।
रानीकी चिन्ता उत्तरोत्तर घढ़ती गयी। किन्तु अपने मनो. रथोंको पूर्ण करनेके लिये उसे कोई मार्ग नहीं सूझ पड़ा। पर एक उपाय उसे सूझ पड़ा। उसने अपनी चतुर दासियोंसे कहा, दासियो ! स्वतन्त्रता पूर्वक विचरण करना मानव जन्मको सार्थक करता है एवं कामजन्य भोगादिको प्राप्त करानेवाला होता है । अतएव माओ हम लोग स्वतन्त्रतापूर्वक घूमने फिरनेके उद्देश्यसे बाहर निकल चलें। दासियोंने रानीके प्रस्ताव का समर्थन किया। उन्होंने कहा-आपके विचार बहुत ही