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बारह अनुप्रेक्षाओंका चिन्तवन किया। अनुप्रेक्षाहो प्राणीको भवसागर से पार उतारने वालो है । वे विचार करने लगे कि, मानव शरीर क्षणभंगुर है, यह जीवन जलका बुदबुदा है और लक्ष्मी विद्युतकी भांति चंचल है । जब भरत आदि चक्रवर्ती तकका जीवन नष्ट हो गया तो इस जीवन की क्या गिनती है ? विना अरहंत देवकी शरण गहे इस जीवका निस्तार नहीं । इसलिए हे जीव, तू सदा अरहंत देवका स्मरण किया कर । तुम्हारी यात्रा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भाव, ये पांचों संसारमें हो चुके हैं और अब भी तू त्रस स्थावर योनियोंमें भ्रमण कर रहा है । पर तुम्हारी यह असावधानी ठीक नहीं है । अब तुझे रत्नत्रयकी प्राप्तिमें अपना वित्त लगाना चाहिए; क्योंकि संसार का विनाश उसी रत्नत्रयकी प्राप्तिसे ही होता है । आत्मन ! तू अकेला ही कर्मोका कर्ता और सुख-दुखका भोक्ता है । तेरे सव भाई-बन्धु तुझसे भिन्न हैं । तुझे अकेला जन्म ग्रहण करना पड़ता है और मरना पड़ता है । अतएव कर्म-कलंकसे रहित सिद्ध परमेष्ठीके चरणोंका निरंतर ध्यान कर। इस जीवकी कर्म - क्रियाओं और इन्द्रियजन्य विषयों में भी विभिन्नता है, फिर कुटुम्बी और भाई बन्धु तो सर्वथा अलग हैं ही। आत्मन् तू लौकिक वस्तुओं से सर्वथा भिन्न है । संसारके सभी लौकिक ऐश्वर्य जड़वत हैं, किन्तु तू ज्ञान दर्शन और कर्मरहित शुद्ध जीव है । इसलिए आत्माका ध्यान करना चाहिए । यह देह रक्त, मांस, रुधिर हड्डी, विष्ठा, सूत्र, चर्म, वीर्य आदि महा अप पदार्थों से निर्मित है, किन्तु भगवान पंच परमेष्ठी इन दोषों से सर्वथा
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गौतम चरित्र |
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