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तीसरा अधिकार। के वृक्षमें छोड़ा हुआ जल कड़वा ही होता है तथा सर्पको पिलाया हुआ दूध विष ही होता है,उसी प्रकार अपात्रको दिये हुए दानसे विपरीत फलकी प्राप्ति होती है। अर्थात् वह दान व्यर्थ चला जाता है। साथ ही आर्यिकाओं के लिये भक्तिके साथ शुद्ध सिद्धान्तकी पुस्तकें देनी चाहिए। उन्हें पहननेके लिए वस्त्र तथा पीछी, कमंडलु देने चाहिये। श्रावक-श्राविका ओंको आभरण, कीमती वस्त्र और अनेक नारियल समर्पित करे । जो स्त्री-पुरुष दीन और दुर्बल हैं-दीन हैं हीन हैं अथवा किसी दुःखसे दुखी हैं, उन्हें दयापूर्वक भोजन समर्पित करे। जीवोंको अभयदान दे, जिससे सिंह व्याघ्रादि किसी भी हिंसक जीवका भय न रहे । जो लोग कुष्टले पीडित हैं, वात, पित्त, कफादि रोगसे दुखी हैं, उन्हें यथायोग्य औषधि प्रदान करे। किन्तु जिनके पास उद्यापन के लिए इतनी सामग्री मौजूद न हो, उन्हें भक्ति करनी चाहिए और अपनी असमर्थता नहीं समझनी चाहिए । कारण शुद्ध भावही पुण्य संपादनमें सहयोग प्रदान करता है। उन्हें उतना ही फल प्राप्त करनेके लिए तीन वर्ष तक और व्रत करना उचित है। आरम्भमें इस वृतका पालन श्रीऋषभदेवके पुत्र अनन्त वीरने : किया: जिसकी कथा आदि पुराणमें विस्तारसे वर्णित है। मुनिराजकी अमृत वाणी सुनकर वहां उपस्थित राजाने अनेक श्रावक श्राविकाओंके साथ एवं उन तीनों कन्याओंने भी लब्धि विधान नामक वुत धारण किये । सत्य है, जो भव्य हैं तथा जिनकी कामना मोक्ष-प्राप्तिकी है,वे शुम कार्यमें देर नहीं करते । भवित