Book Title: Gautam Charitra
Author(s): Dharmchandra Mandalacharya
Publisher: Jinvani Pracharak Karyalaya

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Page 103
________________ ६६ ...... पात्रम अधिकार। ..........mm non numaranninn सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह-नक्षत्र और प्रकीर्णक तारे ज्योतिपियोंके पांव भेद हैं । ये देव मेरु पर्वतकी प्रदक्षिणा करते हुए सदा भ्रमण करते रहते हैं। सोधर्म, ऐशान, सानतकुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर लांतव, कापिष्ट, शुक्र महाशुक्र, सतार सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण अच्युत ये सोलह स्वर्ग हैं। इनके उर्द्ध भागमें नव प्रवेयक है, नव अनदिश है और उनके ऊपर, विजय, वैजयंत, जयंत, अपराजित और स्वार्थसिद्धि नामके पांच पंचोत्तर है। इस प्रकार अपरके कहे गये देवोंमें आयु सुख, प्रभाव, कांति और अवधि ज्ञान अधिक है। प्रधेयकले पूर्वके देव अर्थात् सोलहवें स्वर्ग तकके कल्पवासी कहलाते हैं और आगेके कल्पातीत । वैमानिकदेवोंके विमानोंकी संख्या चौरासी लाख सतानवे हजार तेईस है । भवनवासी, व्यंतर और ज्यो. तिपी देवोंकी कृष्ण नील कापोत और जघन्य पीतलेश्या है। उनकी द्रव्यलेश्या और भाव भी यही है । असुर कुमार देवोंकी उत्कृष्ट आयु एक सागर, नागकुमार देवोंकी तीन पल्य, सुपर्णकुमारोंकी ढाई पल्य, द्वीपकुमारोंकी दो पल्प और वाकी भवनवासियोंकी डेढ-डेढ पल्य भी होती है। पर इन्हीं देवोंकी जघन्य आयु दशहजार वर्षकी है। भवनवासी देवोंके शरीरकी उंचाई पच्चीस धनुष,व्यंतरोंकी दश धनुष तथा ज्योतिषियोंकी सत्रह धनुषकी होती है। प्रथम, दूसरे स्वर्गमें देवोंकी उत्कृष्ट आयु दो सागर,तीसरे-चौथेमें सात सागर सातवें-आठवेंमें चौदह सागर नवें-दशमें सोलह सागर ग्यारहवें-बारहवेंमें अठारह सागर तेरहवें-चौदहवे में वीस सागर और पन्द्रहवें सोलहवे में

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