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द्वितीय अधिकार |
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नाव में
अलग हैं । अतः तू उन्होंकी आराधना कर । जैसे छिद्र होजाने पर उसमें पानी भर जाता है, ठीक वैसे ही मिथ्यात्व अविरत कषाय और योगोंसे जीवोंके कर्मोंका आस्रव होता रहता हैं और नावकी तरह यह भी संसार - सागर में डूब जाता है । अतएव कर्मोके आस्रवसे सर्वथा मुक्त सिद्ध परमेष्ठीका स्मरण किया कर । मिथ्यात्व, अविरत, आदिका त्याग कर देनेसे एवं ध्यान चारित्र आदि धारण कर लेनेसे आनेवाले समस्त कर्म रुक जाते हैं । उसे संवर कहा जाता है। 1 उसी संवरके होने पर जीव मोक्षका अधिकारी होता है । अतः हे जीव ! तुझे अपने शरीरका मोह त्यागकर शुद्ध चैतन्य स्वरूप आत्माका स्मरण करना चाहिए । इस शरीर पर मोहित होना व्यर्थ हैं । तप और ध्यानसे जिन पूर्व-कर्मोका विनाश करना है, उसे निर्जरा कहते हैं । वह दो प्रकारकी होती हैं—एक भाव निर्जरा और दूसरी द्रव्य निर्जरा । ये दोनों निर्जरायें सविपाक और अविपाकके भेदसे दो प्रकारकी होती हैं। tara मोक्ष प्राप्ति के लिए जीवको सदा कर्मों की निर्जरा करते रहना चाहिए । यह लोक अकृत्रिम है । इसका निर्माण कर्ता कोई नहीं है। यह चौदश रज्जू ऊंचा और तीन सौ तैतालिस रज्जू घनाकार है । अतः इस लोकमें जीवका भ्रमण करते रहना सर्वथा व्यर्थ है । कारण इस संसार में भव्य होना महान कठिन होता है, फिर मनुष्य, आर्य क्षेत्र में जन्म, योग्य कालमें उत्पत्ति, योग्य कुल, अच्छी आयु आदिकी प्राप्ति सर्वथा दुर्लभ है और इनकी प्राप्ति होनेपर भी रत्नत्रयकी प्राप्ति और भी
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