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यह मनुष्य का स्वभाव है कि वह आज की नहीं, कल की चिंता में स्वयं को दुःखी कर रहा है। मनुष्य के सुख और दुःख का निमित्त मनुष्य स्वयं ही है। उसे बाहर से न सुख मिलता है न दुःख। सुख-दुःख व्यक्ति की अपनी ही प्रतिछवि है।
पत्नी से, धन से, संपन्नता से, भौतिक साधनों से बाह्य सुख ही मिल सकता है। अंतस् में कोई दुःख की क्षीण रेखा भी हो तो क्या बाह्य साधन वास्तव में सुखी कर पाएँगे? चिंतित व्यक्ति को सुस्वादिष्ट व्यंजनों में भी कोई स्वाद नहीं आता और आनंदित अवस्था में साधारण भोजन भी रसयुक्त हो जाता है। हमारे भीतर के तनाव, चिंता, मूर्छा और लालसा ही दुःख के कारण बनते हैं। परिणामतः हम ऐशो-आराम में भी दुःखी हो सकते हैं और साधनविहीनता में भी सुखी। सुखी केवल वही है जो स्वयं में रत है और अपनी मस्ती में आनंदित।
हमारे यहाँ संत को फकीर भी कहते हैं अर्थात् जो फिकर का फाका करे वह फकीर; जो फिक्र से बेफिक्र हो गया वही फकीर। आज वे फकीर कहाँ रहे ! आज की फकीर-जमात भी सामाजिक व्यवस्थाओं की, ट्रस्टों की, आश्रमों की, अन्य संचालित गतिविधियों की, अपने शिष्यों की चिंता में मसरूफ है। मस्ती तो चली गई, फिक्र के धागे बँध गए, फिर भी कहते हैं कि फकीर हैं ! ___ आज सम्पन्नता के अंदर इतनी विपन्नता है कि कहीं प्रसन्नता दिखाई ही नहीं देती है। सच्चाई तो यह है कि जो जितना अधिक सम्पन्न है, वह उतना ही अधिक दुःखी। वैसे भी अधिक धन दुःख ही लाता है। हम देख भी रहे हैं कि जो अति संपन्न हैं, वे बीमारियों से ग्रस्त हैं; अच्छे-से-अच्छे भोजन और पकवान उपलब्ध हैं, लेकिन शरीर खाने की इजाजत नहीं देता। अमीरों में वैवाहिक जीवन सामान्य नहीं रह पाता, आए दिन तलाक की खबरें आती रहती हैं। वे मस्तिष्क और हृदय संबंधी रोगों से ग्रस्त रहते हैं क्योंकि वे हर वक्त तनाव और चिंता से घिरे रहते हैं। संपन्नता उन्हें भौतिक सुविधाएँ तो उपलब्ध करा सकती हैं, लेकिन जीवन का आनन्द और मस्ती नहीं दिला सकती। जीवन की खुमारी जीवन से ही आती है। वह तो अपने ही बनाए मकड़जाल में उलझा है, जिसमें वह न जी पाता है और न ही बाहर निकल पाता है।
धर्म, आखिर क्या है?
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