Book Title: Bharatiya Sanskrutima Guru Mahima
Author(s): Gunvant Barvalia
Publisher: Arham Spiritual Centre

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Page 65
________________ 1ભારતીય સંસ્કૃતિમાં ગુરુમહિમા पार्श्व चंद्रसूरि और उनकी गुरु छत्रीशी एक परिचय -डॉ. हेमंतकुमार (जैन दर्शन के अभ्यासु डॉ. हेमंदकुमार सी. श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा गांधीनगर में जैन साहित्य संशोधन संपादन प्रवृत्ति में व्यस्त है। आचार्य श्री पार्श्वचंद्रसूरिश्वरजी महाराजसाहब का जन्म विक्रम संवत् १५३७ चैत्र सुदि ९ शुक्रवार को आबुजी तीर्थ के पास हमीरपुर में हुआ था उनके पिता का नाम वेल्हगशाह एवं माता का नाम विमलादे था। वे वीसा पोरवाड जाति के थे । बाल्यावस्था से ही वे विलक्षण प्रतिभा के धारक थे। उन्हे सभी एक ही बात कहते कि भविष्य में यह बालक अवश्य ही महापुरुष के रुप में प्रसिद्ध होगा मन में वैराग्य के बीज लगता है। पूर्वजन्म से ही साथ आया हो, क्योंकि नव वर्ष की छोटी उम्र में ही पंडितप्रवर श्री साधु महर्षि की वैराग्यपूर्ण पवित्र वाणी को सुनकर उनकी आत्मा वैरागी हो गई और उन्हे ही अपना गुरु मानकर विक्रम संवत १५४६ में श्री भागवती दीक्षा अंगीकार कर लीया अपनी तीव्र बुद्धि प्रतिभा एवं गुरुराज की कृपापूर्ण दृष्टि को प्राप्त करके व्याकरण, कोष, काव्य, छंद, अलंकार, न्याय, धर्मशास्त्र आदि विषयों से संबंधित शास्त्रों का अध्ययन बहुत ही अल्प समय में कर लिया। क्षमाभाव एवं गांभीर्यपूर्ण व्यक्तित्व के कारण वे समाज में शोभायमान हुए उनकी योग्यता एवं क्षमता को ध्यान में रखते हुए उन्हे विक्रम संवत् १५५४ में उपाध्यायपद से विभूषित किया गया। उस समय जैन शासन में साधुओं में शिथिलता ने अपना प्रभुत्व जमा लिया था। मुनि क्रियाकांड में रूचि नहीं लेते थे । शास्त्रसम्मत आचार-विचार की कमी हो गई थी। यह सब देखकर उपाध्यायश्री की आत्मा अन्दर से उद्वेलित हो गई ऐसे पवित्र धर्म में इस प्रकार की लापरवाही कैसे चलाई जा सकती है। मुझे तो इस ૧૨૭ ભારતીય સંસ્કૃતિમાં ગુરુમહિમા शिथिलता को जड़ से दूर करना ही होगा, इस प्रकार का संपल्प किया उन्होने विक्रम संवत् १५६४ अर्थात् अपनी २७ वर्ष की अल्पायु में गुरुदेव का आशीर्वाद एवं अनुमति लेकर नागौर में क्रिया उद्धार किया और शुद्ध संवेगमार्ग की देशना देते हुए विहार करने लगे । भव्यात्माओं को मोक्षमार्ग पर अग्रसर करते हुए कालक्रम में जोधपुर पहुँचे। वहाँ के श्रीसंघ ने उनको सर्वगुण सम्पन्न, धर्मधुरंधर और आगमवाणी में गीतार्थ जानकर विक्रम संवत् १५६५ में अर्थात् २८ वर्ष की अवस्था और दीक्षापर्याय के १९ वें वर्ष में उन्हें आचार्यपद पर स्थापित कर दिया। आचार्यपद पर आसीन होने के बाद उन्होंने अपने शिष्यों के साथ उनके देशों मे विहार करते हुए जैन धर्म का खूब प्रचार प्रसार किया। उनकी विद्वता, आचारविचार आदि से प्रभावित होकर चतुर्विध श्रीसंघने विक्रम संवत् १५९९ में संखलपुर में बहुत बड़े महोत्सव का आयोजन कर उन्हे युगप्रधान के पद पर स्थापित किया । युगप्रधान आचार्यदेव ने अनेक प्रकरण ग्रन्थों की रचना करके श्रुत-शास्त्र की अभिवृद्धि की। शुद्ध धर्म की प्रवृत्ति हेतु जगह-जगह धर्मचर्चा करके अनेक भव्यात्माओ को जैन धर्म की धारा में जोड़कर सन्मार्ग पर स्थित किया। उन्होंने अपने जीवन में जिन शासन के उन्नयन के लिए अनेक छोटे-बडे कार्य करके खूब शासन प्रभावना की । सिद्धपुर के पास उणावा गाँव के सोनी वणिकों को धर्मोपदेश देकर जैनधर्मी बनाया। जोधपुर के आसपास रहनेवाले अनेक मुणोत गोत्रीय राजपूतों को मांसमदिरा का त्याग करवाकर मुणोत गोत्रीय ओसवाल श्रावक बनाया । राजपूतों में से ओसवाल श्रावक बनानेवाले आचर्यों में इनके बाद कोड़' समर्थ आचार्य हुआ हो एसी कोई एतिहासिक जानकारी नहीं मिलती है। अनेक गाँवो के श्रावक जो माहेश्वरी हो गए थे उन्हे प्रतिबोधित कर पुनः श्रावकधर्मी बनाया। मारवाड के राजा रावगंगाजी एवं युवराज मालदेवजी को प्रतिबोधित कर जैन धर्म अंगीकृत करवाया इस प्रकार अनेक उदाहरण है, जो उनकी प्रतिभा एवं प्रभावकता को सिद्ध करते है। आचार्य श्री पार्श्वचंद्रसूरिजी द्वारा रचित प्रकरण ग्रन्थों में निम्नलिखित प्रमुख ग्रन्थ है जो आज भी उनके पांडित्य का परिचय देते है। उन्होने आगम सिद्धांत में से तत्त्वों का संग्रहण करके संस्कृत प्राकृत भाषा से अनजान जनसाधारण की भाषा गुजराती में रचना करके साधारण ज्ञानवालों के लिए जैन तत्त्वों को सरल एवं सुलभ बनाया है, ताकि वे भी आगमों के सूत्रों के परमार्थ को समझकर अपना आत्महित ૧૨૮

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