Book Title: Bharatiya Sanskrutima Guru Mahima
Author(s): Gunvant Barvalia
Publisher: Arham Spiritual Centre

View full book text
Previous | Next

Page 93
________________ wwwwwwwwwcारतीय संस्कृतिमा गुरुमहिमाowwwwwwwww दिगंबर जैनाचार्य देवनंदीश्री कृत आचार्यभक्ति में गुरुमहिमा ! • -विजयलक्ष्मी मुंशी (ऊदेपुर) (ऊदेपुरस्थित श्रीमती विजयलक्ष्मी मुन्शी ने इंग्लिश लीटरेचरमें M.A. किया है। महिला विद्यालय ऊदेपुर में प्रिन्सिपाल रुप से सेवा प्रदान करने के बाद, अभी जैन विश्वभारती लडनूं के साथे जूडी हुई हैं। "गंगा से पापं, चन्द्रमा से ताप तथा कल्पतरु से दीनता नष्ट होती है। परन्तु गुरुसंगति से पाप, ताप, दीनता आदि सबका नाश होता है। गु = अन्धकार तथा रु = प्रकाश, अर्थात् गुरु हमें अन्धकार से प्रकाश में लाते हैं। गुरु ही तरणतारण है जो स्वयं भी तिरते हैं और दूसरों को भी तारते हैं। उनकी महिमा एवं गुण _ अनन्त व शब्दातीत है। उच्चैगौत्रं प्रणते गो दानादुपासनात्पूजा । भक्ते सुन्दररुपं स्तवनात्कीर्तिस्तपो निधिषु ॥ गुरु को प्राणाम करने से उत्तम गोत्र की प्राप्ति, दान देने से उत्तम भोग, उपासना से स्वयं की पूजा, भक्ति से कामदेव के समान सुन्दर शरीर तथा स्तवन से चारों दिशाओं में फैलने वाली कीर्ति प्राप्त होती है। भगवान की सेवा से धनसम्पत्ति मिल सकती है, परन्तु गुरुसेवा से तो गुरु भगवान की ही प्राप्ति करा देते हैं। अस्तु... अपने गुरु के कारण ही सिकन्दर महान बना। कौटिल्य चाणक्य ने चन्द्रगुप्त मौर्य को दिग्विजयी किया। गुरु रामदास समर्थ के कारण शिवाजी छत्रपति बने तथा श्रीमद् राजचन्द्र के कारण मोहनदास से महात्मा गाँधी बने। गुरु के लिये जात-पात, उँच-नीच, छोटा-बड़ा कोई मायने नहीं रखता। वे सम्पूर्ण जगत को अपना ही मानते हैं। कहा भी है "उदार पुरुषाणां तु वसुधैव कुटुम्बकम्". -१८३ wwwwwwwwwभारतीय संस्कृतिमा महिभाw wwww आचार्य पूज्यपाद कृत 'आचार्यभक्ति': 'आचार्य भक्ति' में आचार्य की महिमा का सुन्दरतम वर्णन किया गया है। इसमें कुल ग्यारह पद है। धीर, वीर, गंभीर, दमी, यमी, अहिंसा, सत्य, सदाचार, क्षमा, सहिष्णुता आदि गुणों से मुक्त सर्वजन हिताय व सर्वजन सुख के लिए प्रयत्नशील गुरुओं की अभिवन्दना में यह कृति सरल एवं अद्वितीय है। यह संस्कृत भाषा में खिली गई है। आचार्य श्री श्री विद्यासागरजी द्वारा 'आचार्यभक्ति' का पद्यानुवाद - आचार्य पूज्यपाद की इस सुन्दर कृति में वर्णित गुरु महिमा एवं गुणों से सर्वधारण को परिचित कराने के लिए आचार्यश्री विद्यासागरजी ने इसका हिन्दी पद्यानुवाद अत्यन्त ही सरल, एवं हृदयग्राही भाषा में किया है। आयार्च पूज्यपाद श्री देवनन्दि जी का संक्षिप्त परिचय - कविनां तीर्थंकद्रेवः किं तरां तत्र वर्ण्यते । विदुषां वाऽमलध्वंसि तीर्थ यस्य वचोमयम् ॥ आदिपुराण १/५२ कवियों में तीर्थंकर समान, लक्षण ग्रन्थ रचनाकार, वचनरुपी तीर्थ से विद्वानों के शब्द सम्बन्धी दोषों को नष्ट करने वाले देवनन्दी पूज्यपाद में कवि; वैयाकरण एवं दार्शनिक व्यक्तित्वों का एकत्र समवाय पाया जाता है। आपका जन्म ब्राह्मण कुल के कर्नाटक के "कोले" ग्राम में श्री माधव भट्ट एवं श्रीमती श्रीदेवी के यहाँ ई. सन् की छठी शताब्दी में होता प्रतीत होता है। साहित्य प्रमाण से आप भूतवलि, समन्तभद्र, श्रीदत्त, यशोभद्र और प्रभाचन्द्र आचार्यों के उत्तरवर्ती है। आपके द्वारा लिखित अब तक निम्नलिखित रचनाएँ उपलब्ध है - १ - दशभक्ति २- जन्माभिषेक ३ - तत्त्वार्थवृत्ति (सर्वार्थसिद्धि) ४ - समाधि तन्त्र ५ - इष्टोपदेश ६ - जैनेन्द्र व्याकरण ७ - सिद्धि प्रिय स्तोत्र जीवन और जगत् के रहस्यों की व्याख्या करते हुए मानवीय कार्यों के प्रेरक, प्रयोजनों और उसके उत्तरदायित्वों का विवेचन आपके ग्रन्थों का मूल विषय है। आत्म-संयम, आत्म-शुद्धि, ध्यान, पूजा, प्रार्थना एवं भक्ति को उदात्त जीवन के लिए अनिवार्य माना है। आपके काव्य में दर्शन और अध्यात्म मुखरित हाता है। १८४

Loading...

Page Navigation
1 ... 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121