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wwwwwwwwwnारतीय संस्कृतिमा गुरुमहिमाwwwwwwwww जचित्त को लगाये रहते है। कुगति एवं उन्मार्ग से दूर रहकर सत्पथ और सन्मार्ग की ओर निरन्तर गतिमान है। ये पुण्यवन महानुभाव सरल व सहज मन होते है एवं कभी भी अभिमान नहीं करते हैं। ऋद्धि गैरव से आशय शिष्य, पुस्तक, पिच्छिका एवं कमण्डल की सुन्दरता पर गर्व तथा दूसरों का तिरस्कार करना है। स्वादयुक्त एवं मनपसन्द भोजन मिलने का गौरव रस गौरव तथा अपने आप को बहुत सुखी समझना सात गौरव है। पद की पंक्तियाँ है -
"आर्तध्यान से रौद्रध्यान से पूर्णयल से विमुख रहे धर्मध्यान से शक्लध्यान यथायोग्य जो प्रमुख रहे। कुगति मार्ग से दूर हुये है सुगति और गतिमान हये
सात ऋद्धि रस गारव छोडे पुण्यवान गणमानाय हुये॥" (९) नवम पद- अपने बद्ध कर्मों की निर्जरा एवं संवर करने हेतु काय क्लेश एवं कठोर तप करते है। गर्मी की ऋतु में पर्वतों पर जाकर धूप में आतापना लेते है। तेज बरसात में पेड़ो के नीचे तथा शीतकाल में खुले आकाश में रहकर तपस्या करते है और पाप कर्मों को विनष्ट करते है। निर्भय एवं नीडर रहकर चरित्र धर्म का पालन करते है। महान विचारों एवं भावों को रखने वाले ये पुण्यशाली महानुभाव जनशासन की प्रभावना के निलय है।।
(१०) दशम् पद- इस पद में जिनेश्वर देव को सम्बोधित करते हुए कहा गया है- हे जिनेश्वर ! इस प्रकार अगणित असंख्य गुणों के धारक, सबका हित करने वाले ये गणनायक, गणधारक सदैव आपकी भक्ति में लीन रहते है तथा बार-बार झुक-झुक कर आपके चरणों में झुकते है और नमस्कार करते है।
(११) एकादशम् पद- इस पद में भक्त अपने गुरु के प्रति पूर्ण समर्पण भाव रखते हुए कहता है कि वह उन सभी को प्रणाम करता है जिन्होने राग-द्वेष, मोह, मद आदि कषायों के वशीभूत होकर कटु-कर्मों का (प्रगाढ कर्मों का) बंधन बांध लिया था इसलिय उन्होंने संसारी प्रवृत्तियोंसे मुक्त होकर वीतरागता से आत्मध्यान और तप द्वारा सम्पूर्ण कर्मों का नाश कर दिया व जन्म-मरण से मुक्त होकर मोक्षगामी हो गये -
'कषाय वह कटु-कर्म किये थे जन्म मरण से युक्त हुये
वीतरागमय आत्म-ध्यान से कर्म नष्ट कर मुक्त हुये। प्रणाम उनको भी करता हूँ अखण्ड अक्षय-धाम मिले
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मात्र प्रयोजन य ही रहा है सुचिर काल विश्राम मिले ॥"
(१२) द्वादशम् पद- (अंचलिका, दोहा)- इस दोहे में भक्त अपने गुरु के प्रति कृतज्ञता, समर्पण एवं क्षमायाचना का भाव प्रगट करते हुए अत्यन्त ही विनम्रता से निवेदन करता है - हे गणनायक! मुनियों के आचार्य ! अगर आपकी भक्ति में मुझसे कोई अशातना, विराधना या अवज्ञा हुई हो तो आपके संसर्ग में कायोत्सर्ग कर उसकी आलोचना करता हूँ।
(१३) त्रयोदशम् पद - इस पद में आचार्य, उपाध्याय एवं साधु-सन्त की जिनशासन एवं जिन धर्म की प्रभावना में भूमिका बताते हुए कहा गया है कि नित्य पांच आचार (ज्ञानाचार, दर्शना चार, चारित्राचार, वीर्याचार तथा तपाचार) का पालन करने वाले रत्नत्रयी से शोभित महान आचार्य स्वयं तो मोक्षपद पर चलते ही है, अन्य लोगों को भी इस पथ पर चलने के लिए प्रेरित करते है। उपाध्याय चारित्र पालन का ज्ञान देकर मोक्षप्राप्ति का मार्ग दिखलाते है। साधु-सन्त ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र का पालन कर जिनशासन की प्रभावना करते है।
(१४) अंतिम पद - गुरु के प्रति अभिलाषापूर्वक पूर्ण समर्पण, भक्तिविनय एवं नम्रता का भाव प्रगट करते हुए भक्त निवेदन करता है कि वह अपने मन एवं हृदय को निर्मल कर गुरु की वंदना, पूजा एवं अर्चना करता है तथा नमस्कार करता है। उसे एसी सन्मती एवं सद्गति मिले कि सारे कर्म-बन्धन नष्ट होकर कष्टों से मुक्ति मिल जावें। बोधि ज्ञान की प्राप्ति हो। वीरमरण (समाधि मरण) कर आत्मकल्याण कर सद्गति व जिनपद की प्राप्ति कर सके। निम्न पद में यही समर्पण भाव नजर आता है -
"भावभक्ति से चाव शक्ति से निर्मल कर कर निज मन को वेद, पूजू अर्चन कर लूं नमन करूं मैं गरगण को। कष्ट दूर हो कर्म चूर हो बोधिलाभ हो सद्गति हो वीर-मरण हो जिनपद मुझको मिले सामने सन्मति ओ।"
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