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wwwwwwwwwमारतीय संस्कृतिमा गुरुमहिमाwwwwwwwww भक्तिरस का शीतल जल हृदय और मन को आत्मविभोर कर देता है। शब्द विषयानुसार कोमल है। अनुष्टुप, वंशस्थ, उपेन्द्रवज्रा आदि छन्दों का प्रयोग कर गागर में सागर भर दिया है। आपके वैदुष्य का अनुमान "सर्वार्थ-सिद्धि" ग्रन्थ से किया जा सकता है। नैयायिक, वैशेषिक, सांख्य, वेदान्त, बौद्ध आदि विभिन्न दर्शनों की सुन्दर समीक्षा की है। निर्वचन एवं पदों की सार्थकता के विवेचन में आपका कोई सानी नहीं है। आपने प्रसिद्ध वैयाकरण पाणिनी के अपूर्ण पाणिनि-व्याकरण ग्रन्थ को पूर्ण किया।
आप अपने पैरो में गगनगामी लेप लगाकर विदेह क्षेत्र में जाया करते थे। कहते है कि अनेक दिनों के योगाभ्यास के पश्चात् एक देव विमान में बैठकर अनेक तीर्थों की यात्री की। मार्ग में एक जगह उनकी दृष्टि नष्ट हो गयी तो "शान्त्याष्टक" की रचना कर ज्यों-की त्यों दृष्टि प्राप्त की।
जीवन के अंतिम समय में अपने ग्राम में आकर आपने समाधिमरण किया। "आचार्य भक्ति के पद्यानुवादक आचार्य श्री विद्यासागरजी का
संक्षिप्त परिचय" अनन्य ज्ञान, साधना एवं अध्यात्म के धनी वैराग्य-मूर्ति आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज सा. का जन्म दिनांक १०-०२-४६ को शरदपूर्णिमा के दिन बेलगाम के सदलगा गांव की पावन भूमि में मलप्या एवं श्रीभवी के यहां हुआ। शैशव काल से ही आपके मन में सन्त-दर्शन एवं सन्त-समागम की उत्कृष्ट इच्छा रही जिसकी पूर्ति समय समय पर होती रही।
किशोरावस्था तक पहुँचते-पहुँते दीक्षा लेने की भावना बदलती होती गइ। राजस्थान की मरुभूमि में आचार्यश्री ज्ञान प्रकाशजी महाराज सा. ने दिनांक ३००६-१९६८ को २२ वर्ष की अवस्था में दीक्षित हुए। पूर्ण वैराग्य भाव से भावित होकर विद्या, बुद्धि, प्रतिभा, संयम, सेवा एवं अनुभव का संपोषण किया। दिनांक २२-०११-१९७२ को २६ वर्ष की आयु में आचार्यपद को प्राप्त किया।
एकाकी साधना के दुर्गमों में विचरते हुए अपनी अनुपम दृष्टि, आत्मानुशासन एवं अनुभूतियों से आपके हृदय का कवित्व प्रस्फुटित हुआ जो धर्मगाथा में प्रवाहित हुआ। आप बहुभाषा-विद हैं।
आपकी मुख्य रचनाएँ एवं प्रचवन संकलन निम्न हैरचनाएँ - काव्य एवं पद्यानुवाद - श्रमण-शतक, भावना-शतक, निरंजन
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wwwwwwwwwमारतीय संस्कृतिमा गुरुमहिमाwwwwww शतक, परीषहजय, सुनिति-शतक, सूर्योदय-शतक, पूर्णोदय-शतक, सर्वोदयशतक, स्तुति-शतक, मुक्तक-शतक, निजानुभव-शतक, जैन गीता, कुन्दकुन्द का कुन्दन, निजामृत पान, द्रव्य संग्रह, अष्टपाहुड, निययसार, द्वादशानुप्रेक्षा, समन्तभद्र की भद्रता, गणोदय, रयण मंजूषा, आप्तमिमांसा, इष्टोपदेश, गोमटेश अष्टक, कल्याण मंदिर स्तोत्र, भक्तिपाठ, समाधिसुधा सिन्धु, योगसार, एकीभाव, मूकमाटी महाकाव्य, नर्मदा का नरम कंकर, डूबो मत लगाओ डूबकी, तोता क्यों रोता, स्तुति सरोज, मोक्ष ललना का जिया, बनना चाहता यदि शिवांगनपति, समकित लाभ आदि।
आज भी आप यथासूत्र आचरण एवं स्वतन्त्र विचरण करते हुए जिन शासन की प्रभावना कर रहे है। आपकी साहित्य-साधना लेखन एवं प्रवचन के माध्यम से निरन्तर गतिमान है।
“आचार्य भक्ति" (व्याख्या)
(१) प्रथम पद - गुरुमहिमा का गुणगान करते हुए स्तुति के प्रथम पद में बताया गया है कि हमारे गुरु हमेशा शुद्ध-बुद्ध-सिद्ध जिनेश्वर की भक्ति में एवं वन्दना में लीन रहते है। कषाय से मुक्त होकर वे कोध रुपी दावानल को उपशान्त कर देते है तथा निरन्तर वैराग्य भाव में रमण करते है। पूर्ण संयम एवं सजागता से मन समाधारणता, वचन समाधारणता एवं काय समाधारणता रखते हुए तीनों गुप्तियों का समुचित पालन कर शरीर को वश में रखते हैं। वे सत्य भाषी है तथा अत्यन्त ही शुद्ध-भाव से मोक्षप्राप्ति हेतु साधना करते है।
(२) द्वितीय पद - स्तुति के दूसरे पद में गुरु के स्वरुप का वर्णन करते हुए बताया गया है कि वे अपनी पूर्ण मर्यादा के साथ गरिमामय जीवनचर्या से मुनिपद की महिमा को दिन-रात बढाते है। वे जिनशासन के जाज्वल्मान दीपक हैं जो सतत प्रकाशमान होने के साथ साथ दूसरों को भी प्रकाशित करते हैं, अर्थात् आत्म कल्याण करते हुए दूसरों को भी आत्म कल्याण के लिये प्रेरित करने हेतु मन, वचन एवं काया से तत्पर रहते है। संसार के रागी-मोही जीवों को दुःख निवारणार्थ भावना एवं उपदेश देते है। अपनी कुशल साधना द्वारा बंधे हुए कर्मों की निर्जरा एवं संवर में लगते हुए है। उनका निर्मूलन कर सिद्ध होना चाहते है। ऋद्धि, सिद्धि व परसिद्धि में जरा भी मोह नहीं रखते हैं
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