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wwwwwwwwwnारतीय संस्कृतिमा गुरुमहिमाwwwwwwwww कल सकें । उनके द्वारा रचित सभी प्रकरण ग्रन्थ स्वाध्याय करने योग्य हैं। उन प्रकरण ग्रन्थों का संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार है।
संवेद बत्रीशी की रचना किसी खास निमित्त से शाह शिवराज मोहन नामक श्रावक को उद्देश्य करके उसे प्रतिबोधित करने हेतु की गई है। इसका उल्लेख स्वयं आचार्यश्रीजी ने उसी स्वाध्याय के ३०वीं गाथा में कि है। इस ग्रन्थ में वस्तु के स्वरुप का वर्णन बडी ही सरलतापूर्वक उदाहरण के साथ किया गया है, जिसे पढने से हृदय में आहलादकता उत्पन्न होती है।
श्राद्धमनोरथ माला में आचार्यश्रीजी ने श्रावकों को किस-किस प्रकार के मनोरथ-विचार करने चाहिए और कौन-कौन से नहीं करने चाहिए इसका वर्णन आगमानसुरा बहुत ही सुंदर ढंग से किया है।
संक्षेप आराधना में पूज्यश्रीजी ने अपने जीवन को सुखी करने हेतु अपने ऊपर लगे हुए दोष के लिए सर्व जीवों से क्षमा मांगना, पापस्थानकों का त्याग करना, चार शरण ग्रहण करना, सुकृत की अनुमोदना करनी और दुष्कृत की निंदा करनी आदि का आगमों के आधार पर संक्षिप्त व सुन्दर वर्णन किया है।
ओगणत्रीशी भावना में अनेक प्रकार के उत्तम भावनाओं तथा हितशिक्षा का वर्णन किया गया है।
आत्मशिक्षा स्वाध्याय में अन्दर के शत्रुओं को दूर करने हेतु अनेक दृष्टांतों के साथ उपायों का अत्यन्त मनोहर पद्धति से वर्णन किया है।
आत्मशिक्षा स्वाध्याय संयम मार्ग के धारक संयमी काम मन यदि संयम से बहार निकल जाए तो किस प्रकार फिर से संयम में लाकर स्थिर करना, इस हेतु आगमों से अनेक उदाहरणों को प्रस्तुत करते हुए बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है।
सामायिक दोष परिहार स्वाध्याय में श्रावक को अपने कल्याण हेतु समताभाव रुप सामायिक करते हुए ३२ दोषों का त्याग करना चाहिए, ये ३२ दोष किस प्रकार लगते हैं, किस प्रकार का आचरण करने से दोष नहीं लगेंगे, ये दोष कौन-कौन से हैं आदि के संबंध में आचार्यश्रीजी ने आगमों में वर्णित सिद्धांतों के आधार पर संक्षिप्त रुप से सरलतापूर्वक बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है।
चारित्रमनोरथ माला में चारित्र ग्रहण करने से संबंधित विषयों का वर्णन किया गया है। उत्तम पुरुषों द्वारा जिस प्रकार चारित्र का पालन किया गया है उसी प्रकार पालन करना, जीवन में चारित्र का प्राप्त होना किस प्रकार बहुत दुर्लभ हे, कर्मों
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wwwwwwwभारतीय संस्कृतिमा गुरुमहिमाw ww को नष्ट करने एवं मोक्ष की प्राप्ति में चारित्र की कितनी महत्ता है इस सभी बातों का वर्णन किया गया है।
लघु आराधना स्वाध्याय में देव, गुरु और धर्म का संक्षिप्त स्वरुप बताया गया है। चार मंगल, चार उत्तम और चार शरण बताए गए हैं। चार प्रकार के मिथ्यात्व छोडने, अठारह पापस्थानकों का त्याग, मनुष्य जन्मादि की दुर्लभता, शरीर के प्रति ममता का त्याग, दुष्कृत्य की निंदा आदि का सुन्दर विवेचन किया गया है।
आठमद परिहार स्वाध्याय में जातिमद, कुलमद, रुपमद, बलमद, श्रुतमद, तपमद, लाभमद और लक्ष्मीमद इन आटों मदों के स्वरुप तथा उनके त्याग करने के उपाय बताए गए हैं।
गौतमस्वामी लघुरास में श्री गौतमस्वामी के गुणों और उनकी महिमा का अपूर्व वर्णन किया गया है।
शीलदीपिका स्वाध्याय में ब्रह्मचर्य पालन करने हेतु योग्य सावधानियों के संबंध में समझाया गया है। उनका जीवन धन्य है जो अपने कुल को पवित्र करते हुए शील मर्यादा का पालन करते हैं, संसार में कीर्ति का विस्तार करते हैं। अनेक दृष्टांतों का आधार लेकर इसका वर्णन किया गया है।
चेतना रानी स्वाध्याय में चेतना रानी द्वारा अपने चेतन राजा को दिए गए हितशिया एवं सम्यक्त्व गुणों का वर्णन किया गया है।
आचारांगसूत्र बालावबोध, सूत्रकृतांगसूत्र बालावबोध, तंदुलवैचारिक प्रकरण बालावबोध, दशवैकालिक सूत्र, बालावबोध, प्रश्नव्याकरण सूत्र बालावबोध, नवबाड स्वाध्याय, जिनप्रतिमा स्थापना रास, वस्तुपाल तेजपाल रास, शत्रुजयतीर्थ रास, स्तवन चौबीसी आदि अनेक ग्रंथ आज भी उपलब्ध है, जो पूज्य आचार्य श्री पार्शचंद्रसूरिजी के पांडित्य एवं संस्कृत-प्राकृत भाषा के साथ देशी भाषा पर भी एकाधिकार को प्रदर्शित करते हैं।
गुरु छत्रीशी (गुरुतत्त्व विचार स्वाध्याय) का सार-संक्षेप
युगप्रधान आचार्य श्री पार्श्वचंद्रसूरिजी म.सा. ने गुरु की महिमा का वर्णन करते हुए गुरु छत्रीशी (गुरुतत्त्व बिचार स्वाध्याय) की रचना की है। मारुगुर्जर भाषा में निबद्ध इस कृति में पूज्य आचार्यश्रीजी ने कुगुरु एवं सुगुरु का वर्णन अनेक उदाहरणों के साथ किया है, जो भव्यात्माओं के लिए आज भी प्रासंगिक है। कृति का प्रारम्भ करते हुए उन्होंने तीर्थंकरों की स्तुति की है, जिसमें उन्होंने कहा है कि
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