________________
wwwwwwwwwभारतीय संस्कृतिमा महिभाwwwwww मैं प्रतिदिन प्रात:काल इनको वन्दन करता हैं। तीर्थंकरों की वन्दना के पशात् सीमंधरस्वामी आदि बीस बिहरमान तीर्थंकरों, केवली भगवन्तों एवं साधु भगवन्तों की वन्दना की है। वन्दना के पश्चात् आचार्यश्री कहते हैं कि में परमात्मा के चरणकमल में भ्रमर की तरह आसक्त हूँ, फिर भी इस दुषमकाल में कर्मयोग के कारण इस भरतक्षेत्र में उत्पन्न हुआ हूँ, जहाँ अनेक मतों-पंथों को देखकर मैं अनेक संशयों से घीर गया हूँ । मेरे इज्ञ संशयों को दूर करनेवाले एकमात्र अरिहंत परमात्मा ही हैं, परन्तु इस समय उनके नहीं रहने के कारण असंयमियों की पूजा ही विस्तार को प्राप्त हो रही है।
श्रमण भगवान महावीरस्वामी के मोक्ष में जाने के सात सौ वर्ष बाद जैन धर्म के मौलिक तत्त्वों-आगमों को जाननेवालों की संख्या कम हो गई है। कितनों ने अनेक कल्पित ग्रन्थों की रचना की है तथा सूत्रसिद्धांत एवं प्रकरण ग्रन्थ एक समान ही हैं, ऐसा माननेवाले अधिक हो गए। सूत्रसिद्धांत को अलग रखकर प्रकरण ग्रन्थों की व्याख्या होने लगी है। व्यवहार रुप से देव, गुरु और धर्म का उपदेश करने लगे
और भोले-भाले लोग सरल स्वभाव के कारण उनके उपदेशों को ग्रहण करने लगे। एक स्थान पर ८४ आचार्य हुए और उनमें से ८४ गच्छ प्रगट हुए। सब अपने-अपने अलग-अलग विचारधारा वाले हुए। सभी अपने-अपने संघो (साधु-साध्वी एवं श्रावक-श्राविका) का नेतृत्व करने लगे। इन विभिन्न गच्छों में श्री जिन शासन की खोज की जाए तो किस प्रकार की जाए? अर्थात् जहाँ आपस में प्रतिस्पर्धा हो वहाँ वास्तविक स्वरुप कैसे प्राप्त होगा। जन साधारण लोग भेड की तरह अन्धानुकारण करने लगे, जहाँ चमत्कार दिखा उसी ओर आकर्षित हो गए।
कोई आचार्य ऐसा कहते हैं कि श्रीजिनवरदेव की एक प्रतिमा घर में रखकर पूजा करने से सुख की प्राप्ति नहीं होती है। कोई कहता है कि श्री मल्लिनाथ, श्री नेमिनाथ और श्री महावीरस्वामी के दर्शन करने से परमानन्द की प्राप्ति होती है। तो कोई कहता है कि इन तीनों तीर्थंकरों की प्रतिमा घर में नहीं लानी चाहिए। कोई कहते हैं कि जिनेन्द्रदेव की प्रतिमा की पूजाय स्त्री न करे, किन्तु महासतीजी द्रौपदी ने जिनवर प्रतिमा की पूजा की थी, ऐसा आगम में वर्णित है। कोई कहता है कि अमुक भगवान की पूजा करने से लाभ प्राप्त होता है तो अमुक भगवान की पूजा करने से हानि होती है। प्रवचन में तो कहते हैं कि जिन प्रतिमा की पूजा करनी चाहिए, फिर वे कैसे कहते हैं कि अमुक भगवान की प्रतिमा की नहीं करनी चाहिए।
१३१
wwwwwwwwwमारतीय संस्कृतिमा गुरुमहिमाwwwwww ऐसा कहने से तो दो विरोधी बातें ही सामने आएगी जैसे कि कोई कहे कि यह मेरी माता है और बांझ है। इस प्रकार की परिस्थिति में हम कैसे सच्चे गुरु की पहचान करें? मेरा मन संशय से घीर गया है।
अपने-अपने गुरुओं की स्तुति आदि करने लगे। कोई अपने गुरु के संबंध में कहता है कि मेरे गुरु मेघ बरसाते हैं, कोई कहता है कि मेरेगुरु के आशीर्वाद से रोगी रोगरहित हो जाता है, कोई कहता है कि मेरे गुरु अमुक भगवान की पूजा करते हैं, जिससे वे सबकी मनोकामना को पूर्ण करते हैं, कोई चामुंडादेवी की आराधना में लीन है तो कोई नदी में प्रवेशकर देव की साधना कर रहा है और बलिबाकुला अर्पित करके देव को आपने वश में कर रहा है। ऐषे हिंसक साधुओं को भी लोगअपना गुरु मान रहे हैं। कोई कहता है कि मैंने बिजली को बांध लिया है, अमुक आचार्य ने अमावस्या की रात्रि में चाँद दिखाया है, अमुक आचार्य बरगद के वृक्ष को अपने स्थान से उखाड कर अपने साथ चलाते हैं और जहाँ चाहते हैं वहाँ रख देते हैं। कोई कहता है कि उन्हें जिनेश्वरदेव ने स्वयं अपने हाथों से आशीर्वाद दिया है। पांचवें आरा में पाखंडियों की बोलबाला होगी, मंत्राक्षर, चमत्कार करनेवाले, मुद्रा, योगचूर्ण आदि को धारण करनेवाले, अपने मन में उत्पन्न भावों के अनुसार काव्य की रचना करनेवाले, अपनी साधुता की मर्यादा का ध्यान नहीं रखनेवाले, संसारी जीवों को ठगनेवाले होंगे। कोई-कोई साधु ही संसार का नाश कर मोक्षमार्ग के गामी होंगे।
किसी श्रावक के मन में साधर्मी भाईओं को भोजन करवाने हेतु बहुत चिंता थी कि किस प्रकार व्यवस्था की चाए तब अमक धर्माचार्य ने मंत्र के बल से बहत सा घी मंगवा दिया। उनके इस चमत्कार के कारण उन्हें सच्चे गुरु के रुप में स्वीकार कर लिया। राग और द्वेष के लिए मंत्र-तंत्र, जडी-बूटी, विद्या, चूर्ण, चमत्कारिक वस्तुओं आदि के प्रयोग करनेवाले प्रमाद करने लगे। इतना करते हुए भी इसे गलत नहीं माननेवाले और मृत्यु के पहले आलोचना नहीं करने से वे साधुधर्म के विराधक होते हैं। कितने उदाहरण दिए जाएं, चारों ओर तो असंयमियों की ही बोलबाला दिख रही है। उन्हीं की पूजा हो रही है। ऐसी स्थिति में कोई भव्यात्मा जिनशासन के मार्ग को किस प्रकार प्राप्त कर सकता है? इस काल में तो गुरु मिलना भी दुर्लभ है, तो साधु-मुनिराजों का समागम कहाँ से सुलभ होगा? २१ हजार वर्ष तक जगत के नाथ का तीर्थ इस पांचवें आरा में भी जगमगता
૧૩૨