Book Title: Avashyaksutra Niryuktirev Curni Part_2
Author(s): Haribhadrasuri, Gyansagarsuri, Bhadrabahuswami, 
Publisher: Devchand Lalbhai Pustakoddhar Fund

View full book text
Previous | Next

Page 278
________________ चूर्णिः कायोत्सर्ग विधिः निगा १५३११५३५ आवश्यक ते कायोत्सर्गकारः साधवः ससूर्य एव दिवसे प्रस्रवणोच्चारकालभूमीः प्रत्युपेक्ष्य ततश्चास्तमिते सूर्ये तिष्ठन्त्युत्सग स्वके नियुक्तरव- स्थाने, अयं विधिः ॥ १५३१ । कारणान्तरेण गुरोर्व्याघाते सति जइ पुण निवाघाए आवासंतो करिति सव्वेवि । सड्ढाइकहणवाघाययाइ पच्छा गुरू ठति ॥१५३२॥ यदि निर्व्याघात एव सर्वेषामावश्य-प्रतिक्रमणं ततः कुर्वन्ति, सर्वेऽपि सहैव गुरुणा ॥ १५३२ ॥ यदा च ॥ २२६ ॥ पश्चाद्गुरवस्तिष्ठन्ति तदा| सेसा उ जहासत्तिं आपुच्छित्ताण ठंति सट्टाणे।सुत्तत्थसरणहेउं आयरिए ठियमि देवसियं ॥१५२३॥ सूत्रार्थस्मरणहेतुं ॥ १५३३ ।। कायोत्सर्गस्थानाख्यम( सर्गेण स्थातुमशक्तानां )विधिमाहजो हुज उ असमत्यो वालो वुड्डो गिलाण परितंतो। सो विकहाइरहिओझाइजाजा गुरू ठंति॥१५३४॥ ध्यायेत्सूत्रार्थ यावद् गुरवस्तिष्ठन्ति कायोत्सर्ग ॥ १५३४ ॥ आचार्ये स्थिते दैवसिकमित्युक्तं तद्गतं विधिमाहजा देवसिअं दुगुणं चिंतइ गुरू अहिंडओऽचिटुं । बहुवावारा इअरे एगगुणं ताव चिंतंति ॥१५३५॥ ___ अहिण्डकचेष्टां-व्यापाररूपा ॥ १५३५ ।। MI पवइयाण व चिट्ठ नाऊण गुरू बहुं बहुविहीअं। कालेण तदुचिएणं पारेइ थोवचिट्ठोऽवि ॥१॥ (प्र०) । M॥ २२६ ॥ Jain Education in For Private & Personel Use Only Lww.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338