Book Title: Atma Bodh Sara Sangraha
Author(s): Kavindrasagar
Publisher: Kavindrasagar

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Page 6
________________ जाय तो हार्दिक पश्चाताप पूर्वक क्षमायाचना करना-'जिनधर्म नो सारए 'पाप आलोयां जाय' तीसरा शरीराश्रित समताभाव-सुख-दुःख जन्म-मरण लाभहानि सभी अवस्थाएं अपने पूर्वकृत कर्मों का फल है । इस लिये सुख, जन्म या लाभादि होने पर उसमें खुश न होना अर्थात आसक्ति रहित भोगना, दुःख, मरण, हानि आदि में चिन्तित नहीं होना-घबडाना नहीं-शान्त रहना,। ऐसे-ऐसे समता भावमय जीवन से पुराने कर्म खिरकर अलग हो जाते हैं और नये कर्म नहीं बंधते ऐसे संबर एवं निर्जरा भाव से जब सब घाति कर्म क्षय हो जाते हैं तब केवल्य प्रगट होकर मुक्त होता है। अध्यात्म ज्ञान, आत्म ध्यान बिना यह संभव नहीं। ऐसी जानकारी एवं साधना के लिये आत्म हित शिक्षा भावना का चिन्तन मनन अति आवश्यक हैं। अतः आपको इसमें जो भावना के पद पसंद हो, उसे नित्य-क्रम रूप से स्वाध्याय करने की विनती "अध्यात्मज्ञान आत्मध्यान समो शिव साधन और न कोई" ( योगीश्वर चिदानंद) निवेदक मुमुक्षू केशरी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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