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अश्रुवीणा में श्रद्धा का स्वरूप
खण्ड काव्य किंवा गीति काव्य की महनीय परम्परा में अधिष्ठित सौन्दर्य की सुभग प्रस्रविनी का नाम है 'अश्रुवीणा'। यह समाराध्य विनोदिनी उस महाकवि की संरचना है जिसने तपस्या, साधना और ध्यान के द्वारा रूप से स्वरूप को, अनित्य से नित्य को और खण्डता से अखण्डता को प्राप्त कर लिया है, जिसका सम्पूर्ण जीवन सुन्दरता का अशोष्य आकर बन चुका है, जो केवल शिवरूप अथवा मंगलाभिधान से शेष है, समता की आराधना करते-करते स्वयं समता-मय हो गया है, दुधमुंहे बच्चे से कदम बढ़ाते-बढ़ाते ऋत और सत्य के निकेतन में पहुंच चुका है, वह स्वनामधन्य मुनि श्री नथमलजी, सम्प्रति आचार्य महाप्रज्ञ के सार्थक अभिधान से विभूषित हैं।
"अश्रुवीणा" सांसारिक दुःखों से व्यथिता बाला की कारुणिक कहानी है जिसके सारे परिजन-पुरजन अकाल-तिरोहित हो गए हैं, जो कामुकों की कामाग्नि से झुलसते-झुलसते बचकर संशयग्रस्ता सेठानी की ईर्ष्याग्नि में दग्ध हो चुकी है। उसके पास मात्र एक ही पात्र शेष है जिसके सहारे जीवन धारण कर रही है-वह है श्रद्धा। संसार के सारभूत एवं अनन्त विस्तृत कर्म बन्धन सागर संतरण समर्थ एक मात्र नौका है-'श्रद्धा', जो 'अश्रुवीणा' में आद्यन्त विद्यमान है। उसी के सौन्दर्य-संधारण किंवा रूप संधारण का किंचित् प्रयास किया जा रहा है।
'श्रुत्+धा' पूर्वक षिद्भिदादिभ्योऽङ्' से अङ्और 'टाप्' प्रत्यय करने पर 'श्रद्धा' शब्द निष्पन्न होता है। श्रद्धानमिति श्रद्धा'।वाल्मिकी रामायण में स्पृहा, लालसा, विश्वास अर्थ में प्रयुक्त है। अमरकोश में विश्वास और स्पृहा को श्रद्धा कहा गया है। मनुस्मृति के अनुसार शास्त्रों, धर्मकार्यों में आप्तवचन में तृढ़ प्रत्यय को श्रद्धा कहते हैं। गीता में श्रद्धा का विस्तृत विवेचन किया गया है।
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