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(१२) कायं चिन्वंल्लसति विशदं कल्पनानां निकायो, राज्यभ्रंशे नियतिनिरतः पेलवो योऽजनिष्ट । भाग्ये नैषा कुटिलमतिना सर्वथोपेक्षिताऽपि,
सानायासं समर सजुषाऽहं सनाथीकृ ताऽस्मि ॥ अन्वय- राज्यभ्रंशे यो ( मम ) कल्पनानां निकायो नियत निस्तः पेलवो अजनिष्ट (सो भगवदागमने) विशदं कायं चिन्वन् लसति। एषा अहं कुटिलमतिना भाग्येन सर्वथा उपेक्षिता अपि सानायासं समरसजुषा सनाथीकृता अस्मि ।
अनुवाद- राज्य के नाश होने पर जो मेरा कल्पना समूह नियतिवश क्षीण हो गया था ( वही भगवान के आगमन पर ) मानो विशद शरीर का निर्माण करता हुआ सुशोभित हो रहा है। (बढ़ रहा है ) यह मैं (चन्दनबाला) कुटिल मति भाग्य के द्वारा सर्वथा उपेक्षित होती हुई भी अनायास ही समरस (समता) में स्थित भगवान के द्वारा अनाथ कर दी गई है।
व्याख्या- जब सबकुछ-अहंकार, ममत्व, संपत्ति, परिवार, ऐश्वर्य आदि समाप्त हो जाता है तब परमेश्वर का दर्शन होता है। इस छन्द के माध्यम से महाप्रज्ञ ने भक्ति की उत्कृष्ट भूमिका का निरूपण किया है। पवित्र हृदय में ही प्रभुप्रकाश का अवकाश होता है। जब धन जन था तो भगवान कहां आये। अनाथ हुई तब प्रभु स्वयं आए। सांसारिक धन काम नहीं आते हैं। नचिकेता कहता हैन वित्तेन तर्पनीयो मनुष्यः-कठोपनिषद् 1.1.27
सूत्रकृतांगकार का स्पष्ट निर्देश हैवित्तं सोयरिया चेव सव्वमेतं न ता णए।
सूत्र 1.1.5 राज्यभ्रंशे- अजनिष्ट।
चन्दनबाला के पिता दधिवाहन चम्पा नगरी के राजा थे। कौशाम्बी का शासक शतानीक ने आक्रमण कर दधिवाहन के राज्य को हड़प लिया था। इस ऐतिहासिक घटना की ओर 'राज्य भ्रंशे' पद के द्वारा महाकवि ने निर्देश किया
है।
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