Book Title: Ashruvina
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 132
________________ अध्रुवाणा । ११३ (४०) तद् युष्माभिः पुनरपि पुनः पूरणीयं सयत्न, पश्चात्तत्रोपकरणमपि प्राप्स्यते मार्गदर्शि। संप्राप्तानां लघु भगवता भोत्स्यते व्यञ्जनं वो, यन्नापेक्ष्या ध्रुवमतिथयः सङ्गमार्थाः प्रबुद्धैः॥ अन्वय- युष्माभिः पुनरपि पुनः सयत्नम् तद् पूरणीयम्। पश्चात् तत्र मार्गदर्शि उपकरणमपि प्राप्स्यते! भगवता सम्प्राप्तानाम् वः लघु व्यञ्जनं भोत्स्यते। यत् सङ्गमार्थाः अतिथयः ध्रुवम् न उपेक्ष्या। अनुवाद- शब्दो ! तुम बार-बार प्रयत्न करके भगवान् के कान को भर देना। उसके बाद वहाँ पर तुम्हारा मार्गदर्शक उपकरण (सहायक ) भी मिल जाएगा। भगवान् के द्वारा सम्प्राप्त किए जाने पर तुम्हारी स्फुट अभिव्यक्ति हो जाएगी। क्योंकि मिलने के लिए आए हुए अतिथिगण प्रबुद्ध व्यक्तियों के द्वारा उपेक्षित नहीं होते हैं। व्याख्या- इन्द्रियाँ पाँच हैं-स्पर्शन्, रसन, ध्राण, चक्षु और श्रोत्र । प्रत्येय के दो-दो भेद हैं -द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय द्रव्येन्द्रिय के दो भेद-निवृत्त और उपकरण रूप द्रव्येन्द्रिय। भावेन्द्रिय के दो भेद-लब्धि और उपयोग। द्विविधानि । निर्वत्त्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम् । लब्ध्युपयोगो भावेन्द्रियम् । तत्त्वार्थसूत्र 2.16-18 । श्रोत्रेन्द्रिय के दो भेद हुए- निर्वृत्ति और उपकरण। कर्णशष्कुली (कर्ण की पपड़ी) और कदम्ब के फूल के रूप में जो कान की बाहरी और भीतरी बनावट है वह निर्वृत्ति-इन्द्रिय कहलाती है। निर्वृत्ति की वह शक्ति जो शब्द सुनने में उपकारक बनती है उपकरण इन्द्रिय कहलाती है- येन निर्वृत्तेरूपचारः क्रियते तदुपकरणम्-सर्वार्थसिद्धि। यहाँ पर उपकरण का तात्पर्य श्रोत उपकरणेन्द्रिय से है जो शब्दों को कान तक ले जाने में सहायक होता है। इस श्लोक में अर्थान्तरन्यास एवं पर्याय अलंकार है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178