Book Title: Ashruvina
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 165
________________ १४६ / अश्रुवीणा हन्त एक अव्यय,जो प्रसन्नता, हर्ष, शोक, अफसोस, करुणा, दया आदि को प्रकट करता है। दृष्टान्त, काव्यलिंग और अर्थान्तरन्यास अलंकार है । पूपिका, वल्लरी और यष्टि का दृष्टान्त दिया गया है । प्रायः प्रथम तीन पंक्तियों में प्रत्येक में काव्यलिंग अलंकार यानी कारण कार्य-भाव है। चैतन्यम्-अर्थान्तरन्यास अलंकार है। (७२) स्वामिन्नुच्चस्त्वमसि सुतरामग्रहात्. प्रस्ताराणां, तेनाद्यन्तं सह जमृदुता त्वां श्रिताभावनानाम्। एते शैला अधिकृतशिलाः प्रोच्चिताः सञ्चयेन, सर्वात्मानं दधति परुषं मस्तके क्रूरताञ्च ॥ अन्वय-स्वामिन् ! स्तराणाम् सुतराम् अग्रहात् त्वम् उच्चः असि। तेन आद्यन्तम् अग्रहात् त्वाम् भावनानाम् सहजमृदुता श्रिता । एते शैला अधिकृतशिलाः सञ्चयेन प्रोच्चिताः सर्वात्मानम् परुषम् दधति मस्तके क्रूरताम् चा। अनुवाद-स्वामिन् ! प्रस्तरों (मूल्यवान् पत्थर, सोना, चाँदी आदि) को पूर्णतया न ग्रहण करने (परित्याग) से आप ऊँचे हैं (दया, दाक्षिणयादि गुणों से युक्त हैं) इसलिए आद्यन्त सहज और मृदु भावनाएँ तुममें विद्यमान हैं। ये पर्वत उत्कृष्ट शिलाओं (मूल्यवान् पत्थरों) के संचय से बने हैं लेकिन ये पूर्णतया कठोर हैं और मस्तक पर क्रूरता को धारण करते हैं। व्याख्या-इस श्लोक में सुन्दर प्रतीक का प्रयोग कवि ने किया है। पर्वत धनाढ्य लोगों के प्रतीक हैं जो सोना, चांदी, हीरा, जवाहरात आदि से परिपूर्ण होते हैं लेकिन क्रूरता, निर्दयता, अमानवीयता आदि के मूर्त रूप होते हैं । भगवान् इसलिए दयावान् एवं लोककरुण है क्योंकि इन्होंने प्रस्तर (मूल्यवान् सोना आदि) का साशय परित्याग कर दिया। जहां धन है वह शायद ही मानवीयता का विकास देखा जाता है। समाज के कटु सत्य को महाप्रज्ञ ने अपने काव्य में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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