Book Title: Ashruvina
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 167
________________ १४८ / अश्रुवीणा (७४) चक्षुर्वाह्यां प्रतिकृतिमिमां पश्यति स्वप्रभाभिः, संस्थानं सत् तदितरदुत त्वम् मनोज्ञेतरा वा। श्रद्धैवान्तः प्रविशति नृणां हृद्वशीकार एष, आत्मा प्राप्यो भवति हि जनस्तर्कणामस्पृशद्भिः॥ अन्वय-चक्षुः स्व प्रभाभिः इमाम् बाह्याम् प्रतिकृतिम् पश्यति संस्थानम् सत् तद् इतरत् उत त्वग् मनोज्ञा इतरा वा। श्रद्धा एव नृणाम् अन्तः प्रविशति । एष हृदशीकार। हि तर्कणाम् अस्पृशद्भिः जनैः आत्मा प्राप्यो भवति। __ अनुवाद-आँखें अपनी प्रभा द्वारा इस बाह्य आकृति को देखती हैं कि शरीर की बनावट अच्छी है या बुरी, चमड़ी सुन्दर है या असुन्दर । श्रद्धा ही मनुष्यों के हृदय में प्रवेश करती है । यह हृदय का वशीकरण है क्योंकि तर्क से अस्पृष्ट व्यक्ति ही आत्मा को प्राप्त कर सकते हैं। अनुवाद-श्रद्धा के द्वारा ही आत्मा को प्राप्त किया जा सकता है। यही कारण है कि सभी ने श्रद्धा के महत्व को स्वीकार किया है। गीता-श्रद्धावान् लभते ज्ञानम् 4.39 काव्यलिंग एवं अर्थान्तरन्यास अलंकार है। (७५) श्रद्धे! धीरं व्रज भगवतः पार्श्वदेशे मुमुक्षोबंद्धे काये वहसि वसति नेति संकल्पनीयम्। क्षुद्रे कुम्भे सदपि सलिलं काममाकृष्टमंशो र्धाम्नामोधैर्गगनमतुलं व्याप्य किं नाम्बुदःस्यात् ।। अन्वय-श्रद्धे! मुमुक्षुः भगवतः पार्श्वदेशे धीरम् व्रज। बद्धे काये वसतिम् वहसि संकल्पनीयम् न एति । क्षुद्रे कुम्भे सदपि सलिलम् अंशोः अमोघैः धाम्ना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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