Book Title: Ashruvina
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 173
________________ १५४ / अश्रुवीणा प्राच्याम् तरणौ स्पृशति अधुना अपि अस्तम् न एति चित्रम् । अनुवाद - भगवन्! मैंने निश्छल मन से जिस सेठ - पत्नी को सहृदय माता माना था उसी ने अपराध-बुद्धि से (मुझे अपराधी समझकर ) इस प्रकार बन्दी बना दिया। ऐसा लगता है कि इस समय कोई क्रूर ग्रह मेरे चारों तरफ परिभ्रमण कर रहा है। प्रात:काल में पूर्वदिशा में सूर्य के उदित होने पर भी यह ग्रह समाप्त नहीं होता है, यह आश्चर्य है । व्याख्या - प्रस्तुत श्लोक में ग्रह-नक्षत्र विषय लोक- धारणा का विवेचन हुआ है। क्रूर ग्रह के प्रभाव से अच्छा कार्य भी गलत परिणति वाला बन जाता है । चन्दना ने सेठानी को माता समझा था लेकिन सेठानी ने उसे अपनी सौतन समझकर क्रूर कारागृह में डलवा दिया। यह ग्रह दशा का खेल है। निश्छलात्मा - छलरहित मानस वाली, पवित्र मन वाली । चन्दनबाला का विशेषण है | मन्तु बुद्धया= अपराध बुद्धि से, अपराधिन समझकर। मन्तु अपराध, कसूर 'मन ज्ञाने' धातु से कमिमनिजनिगामायाहिभ्यश्च (उणादि सूत्र 1.75) से 'तु' प्रत्यय होकर मन्तु बना है । आगोऽपराधो मन्तुश्च अमर. 2.8.26 मन्तुः पुंस्यपराधेऽपि मनुष्येऽपि प्रजापतौ (मे. 57/43) मन्तु बुद्धया- अपराध बुद्धया । सां चन्दनबाला अपराधिनीति मत्वा । निग्रहम्-आसेधम्, निग्रहणम्, धरणम् वा । गिरफ्तार, बन्धन, कारागार । इस श्लोक में काव्यलिंग, विशेषोक्ति, विभावना आदि अलंकार हैं । अपराधिनी समझना - कारण । कारागार में डलवाना - कार्य। कारण कार्य में काव्यलिंग होता है । कारण होने पर कार्य का अभाव । सूर्योदय होना कारण है लेकिन ग्रह का दूर होना कार्य नहीं हो रहा है। विशेषोक्ति अलंकार । ग्रह की विद्यमान रूप कार्य का रात्री होना कारण का अभाव है। कारण के अभाव में कार्य का सम्यक् होना विभावना अलंकार है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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