Book Title: Ashruvina
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 176
________________ अश्रुवीणा / १५७ अनुवाद-जिसकी आँखें सुन्दर (पवित्र) आँसुओ से प्रक्षालित हैं । उसकी ही सहज अन्त:करण वृत्तियाँ अन्यों को प्रेरित करती हैं। आश्चर्य है, पत्नी की आँसुओ की धारा से सिक्त इषत् उष्ण श्वांस-वायु से धन्य सेठ संसार-सागर के दुस्तर जल को पार कर गया। व्याख्या-इस श्लोक में काव्यलिंग अलंकार का सुन्दर प्रयोग हुआ है। सुभगैः-सुभग शब्द का तृतीया बहुवचन। रमणीयैः पवित्रैः। रमणीय, पवित्र, सुन्दर, आकर्षक, मनोरम। भवजलनिधेः में रूपक अलंकार है। प्रथम दो पंक्तियों में सामान्य का विवेचन है, शेष दो पंक्तियों में विशेष का। विशेष के द्वारा सामान्य के समर्थन से अर्थान्तरन्यास अलंकार है। (८५) मूका पृथ्वी स्थगनमनिलाः प्रापुराशङ्कितोऽभूद, भानुमौनं गगनमभजद् होतुमास्यं दिशैक्षि।। एते भावा अजनि-निधनाः साक्षिणः सन्ति नित्यं, दृष्टाः शक्तैः प्रकृतिविबला शोष्यमाणा अमीभिः॥ अन्वय-पृथ्वी मूका, अनिलाः स्थगनम् प्रापुः, भानुः आशंकितो अभूत्, गगनम् मौनम् अभजत । दिशा आस्यम् ह्रोतुम् ऐक्षि। एते अजनि-निधना भावाः साक्षिणः सन्ति, नित्यम् दृष्टाः अमीभिः शक्तैः प्रकृतिविबला शोष्यमाणा। अनुवाद-पृथ्वी मूक थी, हवाएँ स्थगित हो गयी, सूर्य आशंकित हुआ, गगन मौन हो गया, दिशाएँ मुँह छिपाना चाहती थीं। ये जन्म और मृत्यु से रहित (अनादि-निधन) पदार्थ साक्षी हैं और हमेशा से देखते आए हैं कि संसार में इन शक्तिमान् पुरुषों के द्वारा असमर्थ व्यक्ति शोषित किए जाते हैं। ___ व्याख्या-इस श्लोक में समाज का स्पष्ट रूप कवि ने अंकित कर दिया है। यहां निर्दिष्ट है कि किस तरह सामर्थ्यवान्, धनवान् लोग क्रूरता का आचरण कर समाज के गरीब लोगों का शोषण करते हैं। तल्ययोगिता अलंकार । प्रस्तत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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