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(८२) एषा बद्धा-नृपति-दुहिता नेति किञ्चिद् विचित्रं, एषा बद्धा त्वयि कृतमतिश्चित्रमेतद् विशिष्टम्। भावोद्रेकं लघु गतवती विस्मृतात्मा बभूव,
सा का श्रद्धा न खलु जनयेद् विस्मृति स्थूलतायाः॥ अन्वय-एषा नृपति-दुहिता बद्धा इति न किंचिद्-विचित्रम्। एषा त्वयिकृतमतिः बद्धा एतत् विशिष्टम् चित्रम्। (सा) लघु भावोद्रेकम् गतवती विस्मृतात्मा बभूव। सा का श्रद्धा (या) खलु स्थूलतायाः विस्मृतिम् न जनयेत्।
अनुवाद-यह राजकुमारी बून्दी बनी है-यह कोई आश्चर्य नहीं है। लेकिन यह आप में समर्पित मति (अनन्यनिष्ठा से युक्त) बन्दी बनायी गई यह विचित्र बात है। (इस प्रकार कहती हुई) वह भावोद्रेक (श्रद्धाविभोर) से युक्त विस्मृतात्मा बन गई (पिछली सब बातों को भूल गई)। वह श्रद्धा कैसी जो स्थूल (दु:ख-दैन्य) का विस्मृति न करा दे।
व्याख्या-इस श्लोक में श्रद्धा के महत्त्वपूर्ण पक्ष पर प्रकाश डाला गया है। श्रद्धासरित के लहरों के उत्पन्न होते ही दुःख-दैन्य के विषसर्प बह कर चले जाते हैं। इनका कहीं पता ठिकाना नहीं रहता है।
नृपतिदुहिता-राज की बेटी, राजकुमारी।
त्वयिकृतमतिः -तुममें स्थिर मति वाली। चन्दनबाला का विशेषण। विभावना, विशेषोक्ति और अर्थान्तरन्यास अलंकार हैं।
(८३) स्वर्णाभूषा किमपि न चिरादायसी श्रृंखलाऽभूच्छीर्षे श्यामाः सुविकचकचाः प्रोद्गमं लब्धवन्तः। मन्ये रूपं विकृतमकृतं जातमस्याः क्षणेन,
यन्न श्रद्धाविरचितमहो गाहनीयं विकल्पैः॥ अन्वय-एषा आयसी श्रृंखला न चिरात् किमपि स्वर्णाभूषा अभूत। शीर्षे श्यामाः सुविकचकचाः प्रोद्गमं लब्धवन्तः। मन्ये अस्याः विकृतम् रूपम्
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