Book Title: Ashruvina
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 175
________________ १५६ / अश्रुवीणा अकृतम् (रूपम्) जातम्। अहो! यत् श्रद्धा विरचितम् (तत्) विकल्पै न गाहनीयम्। अनुवाद-यह लौह की श्रृंखला शीघ्र ही कोई (अवर्णनीय रूप से सम्पन्न) स्वर्णाभूषण बन गई। माथे पर काले-काले खिले हुए केश उत्पन्न हो गए। मानो क्षणभर में उसका विकृत रूप अवर्णनीय लावण्य को प्राप्त हो गया। अहो यह सब श्रद्धा विरचित है, विकल्प (तर्क) के द्वारा इस नहीं जाता जा सकता है। __व्याख्या-इसमें श्रद्धा (भक्ति) के महत्व का वर्णन किया गया है भगवत्कृपा की प्राप्ति होते ही सबकुछ नव्य, भव्य हो गया। दु:ख के सारे चिह्न भी समाप्त हो गए । जो कुछ श्रद्धा से प्राप्त हो जाता है उसे तर्क नहीं जान सकते अनन्य श्रद्धा के कारण ही हिमालय पुत्री पार्वती ने जगन्नाथ शिव को प्राप्त किया था। शिव को प्राप्त करते ही पार्वती सारे दुःख-दर्द भूल गई अह्नाय सा नियमजं क्लममुत्ससर्ज क्लेशः फलेन हि पुनर्नवतां विधत्ते ॥ 5/86 श्रद्धा अप्राप्य प्राप्यकारी है। प्रथम श्लोक की व्याख्या देखें। काव्यलिंग, विशेषोक्ति, विभावना, उत्प्रेक्षा और अर्थान्तरन्यास अलंकार हैं। (८४) चक्षुर्युग्मं भवति सुभगैः क्षालितं यस्य वाष्पैस्तस्यैवान्तःकरणसह जा वृत्तयः प्रेरयेयुः। पत्न्याः कोष्णः श्वसनपवनैर श्रुधाराभिषिक्तैधन्येनाऽहो भवजलनिधेर्दुस्तरं वारि तीर्णम् ॥ अन्वय-यस्य चक्षुर्युग्मम् सुभगैः वाष्पैः क्षालितम् भवति तस्य एव सहजा अन्त:करणवृत्तयःप्रेरयेयुः।अहो पत्न्या:अश्रुधाराभिःसिक्तैःकोष्णैश्वसनपवनैः धन्येन भवजालनिधेः दुस्तरम् वारितीर्णम्। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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