Book Title: Ashruvina
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 169
________________ १५० / अश्रुवीणा नहीं होता है। श्रद्धापात्र ( श्रद्धेय ) का शुभागमन मोद (प्रसन्नता) को उत्पन्न करता है परन्तु जाते समय हृदय को चुराकर ( बलात् लेकर ) चला जाता है । कौन प्रिय है कौन अप्रिय है - यह नहीं कहा जा सकता है। I व्याख्या - सहज जीवन का चित्र कवि ने प्रस्तुत किया है। प्रिय के आगमन पर प्रसन्नता और जाने पर दुःख की तीव्र अनुभूति होती है । अर्थान्तरन्यास, काव्यलिंग आदि अलंकार हैं । यथेच्छम्=इच्छानुसार, अनुबन्ध = लगाव, आसक्ति, मुदम् = प्रसन्नता, हर्ष। (७७) अद्यायातो व्रजति भगवान् दुःस्थितां मामुपेक्ष्य, तत् को भावी जगति सुमहान् वत्सलो भक्तलोके । सत् - स्वाधारं त्यजति न पलं स्वात्मना वस्तुजातं, तेनानन्तं सुरपथमिदं विद्यते व्यापकञ्च ॥ अन्वय-अद्य भगवान् आयातः माम् दुःस्थिताम् उपेक्ष्य व्रजति । तत् जगति भक्तलोके सुमहान् वत्सलो को भावी । इदम् सत्-स्वाधारम् वस्तुजातम् पलम् स्वात्मना न त्यजति । तेन इदम् सुरपथम् अनन्तम् व्यापकम् च विद्यते । अनुवाद - आज भगवान् आए और मुझ दुखियारी (पीड़िता) की उपेक्षा कर चले गए। तब संसार में भक्तजनों में महान् दयालु कौन होगा। यह आकाश अपने पर आधृत विद्यमान वस्तु जगत् को क्षणभर के लिए अपने से अलग नहीं करता है । इसलिए यह आकाश अनन्त और व्यापक है। व्याख्या - इस श्लोक में काव्यलिंग और अर्थान्तरन्यास अलंकार है । उपालम्भ का स्वर मुखरित हो रहा है। संसार में ऐसा कोई भी नहीं है जो अपने आश्रित की उपेक्षा करता है । भगवान् ने ऐसा क्यों किया? यहाँ पर निन्दा, उपलाभ के ब्याज से भगवान् की स्तुति की गई है इसलिए ब्याज - स्तुति अलंकार है। वत्सलः =दयालु, प्रिय । सत् - स्वाधारम् - विद्यमान अपने आधार को, वस्तु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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