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दग्धोत्स्विन्ना प्रबलदहने पूपिकेयं प्रभूतमेषा म्लानाऽतुलहिमदुता वल्लरी चापि जात्या । एषा यष्टिः किमपि लुलिता हन्त भारातिरेकाचैतन्यं को हरति न खलूद्बोधयेत् कश्चिदेकः ॥
अन्वय-इयम् पूपिका प्रबलदहने प्रभूतम् दग्धोत्स्विन्ना एषा । जात्याबल्लरी अतुल हिमदुताम्लाना। एषा यष्टिः भारातिरेकात् किमपि लुलिता । हन्त । चैतन्यम् खलु को न हरति कश्चिद् एक : उद्बोधयेत् ।
अनुवाद - यह पूपिका (पुआ) प्रचण्ड अग्नि में अधिक जलकर राख हो गयी । यह श्रेष्ठ जाति की लता हिम से पीड़ित होकर म्लान हो गयी । यह यष्टि (लकड़ी) भार के अतिरेक से किंचित् झुक गयी । हन्त ! चैतन्य का हरण कौन नहीं करता है लेकिन कोई एक ( विरलेही ) उद्बोधक ( चैतन्यप्रदाता) होता है ।
व्याख्या - अनेक दृष्टान्तों के माध्यम से कवि ने यह स्पष्ट संकेत दिया है कि समाज में, संसार में भ्रम, दुख, पीड़ा, दैन्य, मूर्छा आदि को उत्पन्न करने वाले अनगिनत लोग हैं लेकिन सत्य मार्ग का उपदेशक अत्यल्प हैं । पूपिका, जात्यवल्लरी (श्रेष्ठ बेललता) एवं यष्टि के दृष्टान्त से कवि ने इस तथ्य का उद्घाटन किया है।
पूपिका- पूप् धातु ठन् (इक्) एवं टाप् (आ) प्रत्यय। मीठा पुआ, मालपुआ ।
वल्लरी - बेल, लता ।
लुलिता = झुकना, चंचल हो जाना, दब जाना ।
उत्स्विन्ना = - उत् उपसर्ग पूर्वक स्विदा स्नेह मोचनयो: धातु से क्त प्रत्यय हुआ है। समाप्त हो जाना, जलकर राख हो गयी - समाप्त हो गयी ।
यष्टिः - यज् धातु + क्तिन् प्रत्यय । लकड़ी, लाठी, खंभा, स्तम्भ ।
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