Book Title: Ashruvina
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 163
________________ १४४ / अश्रुवीणा (७०) प्रायो लोकः प्रकृतकुशलो नैव कत्तळ-दक्षः, द्रष्टुं यत्नं सृजति विगतं नैव सम्पद्यमानम्। स्त्रीणां भोगश्चिर परिचितस्तेन तौति मोहं, नासामन्ये प्रकृतिसुलभाः सद्गुणा द्रष्टुमिष्टाः॥ अन्वय-लोकः प्रायो प्रकृतकुशलो नैव कर्त्तव्यदक्षः। विगतम् द्रष्टुम् यत्नम् सृजति नैव सम्पद्यमानम् स्त्रीनाम् । भोग: चिरपरिचितः तेन तत्र मोहं एति । अन्ये आसाम् प्रकृतिसुलभाः सद्गुणाः न द्रष्टुमिष्टाः। अनुवाद-मनुष्य प्रायः सम्पन्न कार्यों में कुशल होता है, कर्तव्य-दक्ष नहीं होता है। अतीत को देखने के लिए वह यत्न करता है, वर्तमान के लिए नहीं करता है। स्त्रियों का भोग चिरपरिचित है इसलिए पुरुष (स्त्रियों में) वहाँ मूढ़ हो जाते हैं। अन्य इनमें विद्यमान प्रकृति सुलभ गुणों को नहीं देखना चाहते (गुणों का सम्मान नहीं करते हैं)। व्याख्या-आचार्य महाप्रज्ञ का समाजशास्त्र स्पष्ट रूप से काव्य के कमनीय धरातल पर अवतरित हुआ है। वही समाज सफल होगा जिस समाज के लोग निम्नलिखित गुणों से परिपूर्ण होंगे 1. कर्तव्य-दक्षता, 2. वर्तमान को पूर्ण करने का प्रयत्न, 3. सतत जागरूकता, 4. समग्र चिन्तन एवं विधायक सूत्र। परिकर अलंकार । काव्यलिंग। प्रकृतकुशलो कर्तव्यदक्षः परिकर । भोग चिरपरिचित-भोग और मोह प्राप्ति-कारण-कार्य भाव है इसलिए काव्यलिंग अलंकार है। माधुर्य गुण। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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