Book Title: Ashruvina
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 157
________________ १३८ / अश्रुवीणा (६३) घोरे तापे सततमवहद् वाष्पधारा विचित्रं, शैत्ये लब्धे भगवति पुनः सम्मुखीने क्षणेन । सा संरुद्धा विरलतनवः केवलं बिन्दवस्ते, तस्थुर्भिक्षा - ग्रहण - सरणिं स्वामिनो द्रष्टुमुत्काः ॥ अन्वय- घोरे तापे वाष्पधारा सततम् अवहत् (इति) । पुनः भगवति सम्मुखीने: शैत्ये लब्धे क्षणेन सा संरुद्धा । केवलम् ते विरलतनवः बिन्दवः तस्थुः (ये) स्वामिनो भिक्षाग्रहण- सरणिम् द्रष्टुमुत्काः। अनुवाद - यह आश्चर्य है कि चन्दनबाला के हृदय में घोर ताप के विद्यमान होने पर लगातार आँसुओ की धारा बही। पुनः भगवान् के सम्मुख आने पर ताप के शान्त होने पर क्षणभर में वह धारा रुक गयी । केवल वे ही अल्प दुबली बूंदें बच गईं जो स्वामी महावीर के भिक्षाग्रहण विधि को देखने के लिए लालायित थी । 1 - व्याख्या- जब हृदय में विरह की, दुख की पीड़ा की ज्वाला जल रह थी तब बाहर आँसुओ की अविरल धारा बह रही थी । भगवान् के आने पर हृदय शान्त हुआ तो वह धारा भी शान्त हो गयी यह आश्चर्य है । ताप होने पर धारा सूख जाती है लेकिन यहाँ तो और तेज हो गयी । कारण ताप होने पर कार्य का अभाव- विशेषोक्ति अलंकार । धारा का शान्त होना कार्य है, लेकिन शान्त होने का कारण ताप अविद्यमान है इसलिए विभावना अलंकार । जो देखना चाहते थे- कारण वे शेष रह गये कार्य । कारण कार्य होने से काव्यलिंग अलंकार । विरल= कम, थोड़ा तनु-तनवः पतला । -- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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