Book Title: Ashruvina
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 160
________________ अश्रुवीणा / १४१ अनुवाद - उन्मत्त लोगों के लिए दिन अथवा रात में कोई विशेष अन्तर नहीं होता है। कार्य और अकार्य में थोड़ा भी भेद न करना उनका गुण है । जब तक आँखें हाला से आच्छादित होती हैं तब तक इनका सुख होता है ( इन्हें सुख मिलता है)। उसके बाद आँखों के चारों ओर अन्धकार व्याप्त हो जाता है । - व्याख्या- उन्मत्त की दुर्दशा का चित्रण किया गया है। उन्मत्त व्यक्ति रातदिन में कोई अन्तर नहीं पाता । कर्तव्य और अकर्तव्य, पुण्य और पाप की भेदिका बुद्धि भी समाप्त हो जाती है। शराब का नशा जब समाप्त होता है तब शेष रहता है - घोर अन्धकार, कभी न समाप्त होने वाला दुःख । काव्यलिंगालंकार भिदा=अन्तर, (भिद्+अङ्+ताप्) । अक्ष्णोः : समन्तात् = आँखों के चारो ओर । समन्तात् = चारों ओर, सब ओर से, पूर्ण रूप से। तिमिरम् = अन्धकार, अन्धापन । (६७) अम्भोवाहा विघटनमिमे जृम्भणं चापि यान्ति, वाता ग्रीष्मं दधति वसनं शीतलं जातु तेऽपि । भूमिं प्राप्ता अपि जलकणा व्योम-मार्गं श्रयन्ते, निद्रोन्निद्रा क्रममनुगता केवलं मुद्रितेयम् ॥ अन्वय- इमे अम्भोबाहा विघटनम् जृम्भणम् च अपि यान्ति । ते वाता जातु ग्रीष्मम् शीतलम् वसनम् दधति । जलकणाः भूमिं प्राप्ता अपि व्योममार्गम् श्रयन्ते । निद्रोन्निद्रा क्रममनुगता केवलम् इयम् मुद्रिता । अनुवाद-ये बादल बिखरते हैं और बढ़ जाते हैं । ये पवन गर्म वस्त्र धारण करते हैं तो कभी शीतल । जलकण भूमि को प्राप्त कर आकाश में पहुँच जाते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178