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१२६ / अश्रुवीणा
(५१) आशावल्ल्या इव दददवष्टम्भमुच्चैः पतन्त्याश्चित्तं सिञ्चन्निव दवगतं मन्थरोऽसौ वभूव। आरम्भाणां प्रथम चरणे लब्धसंपल्लवानां, साश्चर्यं यच्छुभशकुनता मान्यतां याति लोके ॥
अन्वय- उच्चैः पतन्त्या: आशा वल्लया: अवष्टम्भम् ददत् इव दवगतं चित्तं सिञ्चन् इव असौ मन्थरो बभूव। आरम्भाणां प्रथम चरणे लब्लसंपल्लवानाम् लोके आश्चर्यम् शुभशकुनता मान्यतां याति।
अनुवाद- मानो ऊँचें से गिरती हुई आशावल्ली को अवष्टम्भ (अवरोध) देते हुए तथा जलते हुए चित्त को मानो सिंचन करते हुए भगवान् शिथिल हुए (रुक गए)। कार्यारम्भ के प्रथम चरण में ही यदि फलांककुरोत्पत्ति (थोड़ी सफलता) लोक में आश्चर्यपूर्वक शुभ शकुन मानी जाती है (कार्यारम्भ में थोड़ी सफलता शुभशकुन कहलाती है)।
व्याख्या- उत्प्रेक्षा, रूपक और अर्थान्तर न्यास अलंकार के माध्यम से कवि ने सुन्दर ढंग से भावाभिव्यञ्जना की है। भगवान् रुक गए ऐसा लगा मानो गिरती हुई आशावल्ली को सहारा दे रहे हो अथवा जलते हुए चित्त का शीतल सिंचन् कर रहे हों। कार्यारम्भ में थोड़ी सी सफलता शुभ शकुन मानी जाती है।
आशावल्ली आशा की लता, आशारूप लता-रूपक अलंकार। आशा की लता ही विरहियों के जीवन का आधार है। पतन्त्याः गिरते हुए आशावल्लयाः का विशेषण है । अवष्टम्भम् अवलम्बनम्-सहारा, थूनी, स्तम्भ । दवगतम् अग्नि से युक्त, तप्त। दव-अग्नि ।दव का अर्थ जंगल भी होता है प्रस्तुत में अग्नि वांक्ष्य
है।
असौ-वह भगवान्। मन्थर-शिथिल। संपल्लव-अंकुर।
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