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अश्रुवीणा । १२९
(५४) केयं माया व्यरचि विधिना भ्रान्तिराहो प्रवृत्ता, स्वप्नोऽलोकि क्वचन कुहकं केनचित् प्रस्तुतं वा। मोघानेतान् व्यधिषि विकलान् कांश्चिदुच्चैर्विलापान,
देवः साक्षाद् विहरति पुरः पावनो मां पुनानः॥ अन्वय- केयम् विधिना माया व्यरचि आहो भ्रान्तिः प्रवृत्ता । क्वचन स्वप्नो अलोकि केनचित् कुहकम् प्रस्तुतम् वा। एतान् मोघान् विकलान् कांश्चित् विलापान् व्यधिषि । मां पुनानः साक्षात् देवः पुरः विहरति।
अनुवाद- (भगवान् जब चन्दनबाला की ओर लौटने लगे तब वह सोचती है) क्या यह विधि के द्वारा माया की रचना की गई अथवा भ्रान्ति हो गयी। मै कोई स्वप्न देख रही हूं अथवा किसी ने इन्द्रजाल (ठगी) प्रस्तुत कर दिया है। व्यर्थ ही मैंने इतना प्रलाप किया क्योंकि मुझको पवित्र करने वाले साक्षात् देव मेरे सामने खड़े हैं (सामने आ रहे हैं)।
व्याख्या- जब अचानक कोई कार्य सफल हो जाए तो सहसा विश्वास नहीं होता है। चंदना की जन्मजन्मान्तर की साधना आज सफल हो रही है, उसे कैसे सहसा विश्वास हो जाए। वैसी स्थिति में सामान्य मनुष्य की क्या स्थिति होती है इसका मनोवैज्ञानिक चित्रण कवि ने सुन्दरता से किया है। अर्थान्तरन्यास अलंकार है।
(५५) प्राप्याऽप्राप्यं प्रथमपलके अन्तर्गतानां व्यथानां, प्रादुर्भावो भवति नियमो नैष जातोऽत्र वन्ध्यः। तासां जाता स्मृतिरभिनवा प्रस्तुतानां, गतानां,
वाक् संवृत्ता भगवति पुरस्तादुपालम्भलोला॥ अन्वय- अप्राप्यम् प्राप्य प्रथम पलके अन्तर्गतानाम् व्यथानाम् प्रादुर्भावो भवति । एष नियम अत्र वन्ध्यो न जातः । तासाम् गतानाम् अप्रस्तुतानाम् स्मृति अभिनवा जाता। भगवति पुरस्तात् उपालम्भलोलावाक् संवृत्ता।
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