Book Title: Ashruvina
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 135
________________ ११६ / अश्रुवीणा ज्ञान (मनः पर्यव ज्ञान) से ही मेरी मानसिक आकृति (विचारों) को साक्षात् जानने की चेष्टा करे-इस प्रकार भगवान् को प्रेरित कर तुम कार्य निपुण के द्वारा मौन आलम्बन कर लेना चाहिए। व्याख्या- इस श्लोक में इन्द्रिय-ज्ञान में संशय और व्यत्यय की ओर निर्देश कर प्रत्यक्ष ज्ञान को श्रेष्ठ बताया गया है। ज्ञान दो तरह के होते हैं परोक्ष और प्रत्यक्ष । इन्द्रियजन्य ज्ञान परोक्ष है, इसे अक्ष ज्ञान भी कहते हैं । अक्षम् इन्द्रिय अक्ष ज्ञान-इन्द्रिय ज्ञान । यह भी दो प्रकार का होता है -मतिज्ञान और श्रुतज्ञान । आत्मकृत ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं। अवधि, मनः पर्यव और केवलज्ञान प्रत्यक्ष के अन्तर्गत आते हैं। पृथुलः =अधिक, चौड़ा, प्रशस्त । व्यत्यय-विरोध, वैपरीत्य, रूपान्तरण । काव्यलिंगालंकार है। पृथुलः प्रयत्न:=परिकर अलंकार, पृथुल विशेषण का प्रयोग हुआ है। (४३) ध्येयं सैषोऽवगणयति तान् कामिनीनां कटाक्षान्, येषां क्षेषैः कुटिलगतिभिर्वक्रताऽत्याजि वनः। तस्माद् रेखा युवतिविषयाः कामनां तेजयन्त्यो, नालेख्या ही चटुलचरणैर्वस्तरङ्गैः सकम्पम् ॥ अन्वय- स एष भगवान् कामिनीनाम् तान् कटाक्षान् अवगणयति येषाम् कुटिलगतिभिः क्षेपैः वक्रैः वक्रता अत्याजि। तस्माद् वः ध्येयम् सकम्पम् चटुलचरणैः तरङ्गैः कामनां तेजयन्त्यो ही युवति विषया रेखा न आलेख्या। अनुवाद- वह भगवान् कामिनियों के उन कटाक्षों की अवगणना करता है जिनके कुटिल प्रहार से वक्र व्यक्ति भी अपनी वक्रता का परित्याग कर देते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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